SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 21 গা न कोई ताल-तलैयों की भांति बंद घटना नहीं है। ज्ञान तो तरलता है— सरिता की भांति बहती हुई । इसलिए ज्ञान की कोई बंधी हुई धारणाएं नहीं हो सकतीं। ज्ञान की कोई धारणा ही नहीं होती, न कोई विचार होता है। अगर विचार होगा तो पक्षपात हो जाएगा। ज्ञान तो निष्पक्ष है। एक दीया हम जलाते हैं। तो जो भी कमरे में हो, जैसा भी कमरे में हो, प्रकाश उसे प्रकट करता है। प्रकाश का कोई अपना पक्ष नहीं है। प्रकाश यह नहीं कहता कि सुंदर को प्रकट करूंगा, असुंदर को ढांक दूंगा; कि शुभ को ज्योतिर्मय करूंगा, अशुभ को अंधकार में डाल दूंगा। प्रकाश निष्पक्ष है; जो भी सामने होता है, उसे प्रकट कर देता है। जहां भी पड़ता है, प्रकट करना प्रकाश का स्वभाव है। प्रकाश की अगर अपनी कोई धारणा हो तो फिर प्रकाश निष्पक्ष न होगा । ज्ञान प्रकाश की भांति है। ज्ञान तो एक दर्पण है; जो भी सामने आता है, झलक जाता है। ज्ञान कोई फोटोग्राफ नहीं है। ज्ञान के पास अपना कोई चित्र नहीं है। ज्ञान तो एक खालीपन है। उस खालीपन के सामने जो जैसा होता है, वैसा ही प्रकट हो जाता है। इस बात को पहले समझ लें। क्योंकि साधारणतः हम जिन लोगों को ज्ञानी कहते हैं, वे वे ही लोग हैं, जो पक्षपात से भरे हुए लोग हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है। कोई गीता को मानता है, कोई कुरान को। उनकी अपनी धारणाएं हैं। सत्य के पास जब वे जाते हैं तो अपनी धारणा को लेकर जाते हैं; वे सत्य को अपनी धारणा के अनुकूल देखना चाहते हैं। सत्य किसी के पीछे छाया बन कर थोड़े ही चलता है । और सत्य किसी की धारणाओं में ढल जाए तो सत्य ही नहीं। सत्य के पास तो वे ही पहुंच सकते हैं, जिनकी कोई धारणा नहीं है, जिनके मन में कोई प्रतिमा नहीं है; जो सत्य का कोई रूप-रंग पहले से सोच कर नहीं चले हैं; जिनके परमात्मा की कोई आकृति नहीं है, और जिनके परमात्मा का कोई रूप नहीं है । और जैसा भी होगा रूप और जैसी भी होगी आकृति उस परमात्मा की, वे अपने हृदय के दर्पण में वैसी ही झलका देंगे। वे जरा भी ना-नुच न करेंगे। वे यह न कहेंगे कि तुम अपनी धारणा के अनुकूल नहीं मालूम पड़ते हो । अपनी धारणा का अर्थ है अहंकार । तुम ज्ञान को भी चाहोगे कि वह तुम्हारे पीछे चले। और तुम सत्य को भी चाहोगे कि तुम्हारा अनुयायी हो जाए। और तुम परमात्मा को भी चाहोगे कि वह तुम्हारी धारणाओं से मेल खाए। तभी तुम स्वीकार करोगे । तुम्हारी स्वीकृति के लिए अस्तित्व नहीं रुका है। तुम्हारी स्वीकृति की कोई चाह भी नहीं है। तुम्हारी स्वीकृति के बिना अस्तित्व पूरा है। तुम हो कौन ? तुम किस भ्रांति में हो कि तुम्हारी धारणा के अनुकूल सत्य हो? तुमने कभी विचार किया अपने मन पर कि तुम किस बात को सत्य कहते हो ?
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy