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स्नण गुण से बड़ी कोई शक्ति बहीं
और तुम्हें पता भी नहीं चलता कि छाया तुम्हें चलाने लगती है; छाया के इशारे से तुम चलने लगते हो। स्त्री कभी यह भी नहीं कहती सीधा कि यह करो, लेकिन वह जो चाहती है करवा लेती है। वह कभी नहीं कहती कि यह ऐसा ही हो, लेकिन वह जैसा चाहती है वैसा करवा लेती है।
लाओत्से यह कह रहा है कि उसकी शक्ति बड़ी है। और शक्ति उसकी क्या है? क्योंकि वह दासी है। शक्ति उसकी यह है कि वह छाया हो गई है। बड़े से बड़े शक्तिशाली पुरुष किसी के प्रेम में पड़ जाते हैं, और एकदम अशक्त हो जाते हैं। चाहे नेपोलियन हो, तो अपनी प्रेयसी जोसेफाइन के सामने वह बिलकुल साधारण बच्चा है। लाखों सैनिकों को आज्ञा देता है। आल्प्स पर्वत को कह देता है कि मेरी आज्ञा है, पार होना ही होगा; इससे हम पार होकर ही रहेंगे। इसके पहले कभी पार नहीं किया था किसी सेना ने। आल्प्स को पार कर लेता है। युद्ध के मैदान पर उसका कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन जोसेफाइन के सामने वह छोटा बच्चा हो जाता है। भयंकर युद्ध चलता हो तो भी रोज एक पत्र वह रात, आधी रात को भी मौका मिले उसे, रोज एक पत्र जोसेफाइन को जरूर लिखता है। और जोसेफाइन छाया की तरह है। और कभी उसने उसे चलाना नहीं चाहा; कोई आतुरता नहीं है कि नेपोलियन को वह चलाए। लेकिन नेपोलियन चलता है। क्या हो गया है?
लाओत्से कहता है, स्त्रैण शक्ति की बड़ी खूबी है। वह खूबी यही है जो कि अस्तित्व की खूबी है। तो अगर तुम्हें अस्तित्व को समझना है तो स्त्रैण चित्त की धारणा को ठीक-ठीक समझ लेना। अस्तित्व भी ऐसे ही चल रहा है। स्त्री अब भी अस्तित्व के पास है। पुरुष अपने विचार में बहुत दूर खो गया है।
नीचे हो जाना; तब तुम ऊंचे हो जाओगे। छाया बन जाना; तब तुम्ही मार्गदर्शक हो जाओगे। अपने को मिटा देना, रेखा भी मत बचाना; तब तुम्हारी विजय की कोई सीमा नहीं है।
अभी तुम बिलकुल हारे हुए हो। अभी तुम बिलकुल खंडहर हो, टूटे हुए हो। अभी तुम्हारी आंखों में सिवाय पराजय के, हारेपन के, सर्वहारा भाव के, कुछ भी नहीं है। तुमने अपनी अकड़ से जीकर बहुत देख लिया। अगर तुम्हारे पास कान हों और मेरी बात तुम्हें सुनाई पड़े तो तुम अब बिना अकड़ के जीना शुरू कर दो। पुरुष की भांति दंभ से भरे हुए बहुत जी लिए जन्मों-जन्मों। • यहां एक बड़ी मजेदार बात है। महावीर के अनुयायी मानते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति पुरुष की पर्याय में न
आ जाए तब तक मुक्त नहीं हो सकता। अगर ठीक उसके सामने तुम्हें लाओत्से को समझना हो तो लाओत्से कहता है, जब तक कोई स्त्री पर्याय में न आ जाए तब तक मुक्त नहीं हो सकता।
. महावीर और लाओत्से ठीक विरोधी छोर हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि सौ में निन्यानबे लोग लाओत्से के मार्ग से पहुंच सकेंगे; सौ में से एक ही महावीर के मार्ग से पहुंच सकता है। क्योंकि महावीर का मार्ग संघर्ष का है, समर्पण का नहीं। झगड़े का है; वह प्रकृति से झगड़ा है, संघर्ष है। उसमें कभी कोई एकाध ही सफल हो पाता है। लेकिन लाओत्से के मार्ग से सौ में से निन्यानबे लोग पहुंच सकते हैं। क्योंकि वह संघर्ष का नहीं है, वह समर्पण का है। वह परमात्मा को जीतने की कोशिश नहीं है; वह परमात्मा के सामने हार जाने की कोशिश है। अब जो हारने को राजी है, उसको तुम कैसे हराओगे? जो जीतना ही नहीं चाहा, उसकी जीत को तुम कैसे मिटाओगे?
यही पुरुष और स्त्री का भाव है। पुरुष जब भी स्त्री के संबंध में सोचता है तो जीत के भाव से सोचता है कि कैसे इस स्त्री को जीतूं! स्त्री जब भी किसी पुरुष के संबंध में अपने गहन भाव में सोचती है तो वह यही सोचती है, कैसे इस पुरुष से हारूं! कब वह महत क्षण आएगा जब मैं इस पुरुष से हार जाऊंगी!
लाओत्से कहता है, हारने की कला ही जीतने की कला है-स्त्रैण भाव में। और मैं भी तुमसे कहता हूं कि सौ में निन्यानबे मौके तुम्हारे लिए भी लाओत्से के मार्ग से ही खुलेंगे। नदी की धार के विपरीत तैर कर कोई एकाध
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