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ताओ उपनिषद भाग ५
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आदमी शायद पहुंच जाए; वह भी संदिग्ध मालूम पड़ता है। क्योंकि नदी से लड़ोगे तो टूटोगे। नदी की धार में बह कर सभी पहुंच सकते हैं - कमजोर भी, शक्तिशाली भी। किसी को बाधा नहीं है; क्योंकि बहना ही है धार के साथ। रामकृष्ण कहते थे, एक ढंग तो है पतवार चलाने का; वह नदी से लड़ना है। उससे थकान आएगी ही। और एक रास्ता है प्रतीक्षा करने का कि जब हवा दूसरे किनारे की तरफ बह रही हो तब पाल तान देना । पतवार की कोई जरूरत नहीं, हवा का ही उपयोग कर लेना । हवा दूसरे किनारे की तरफ जा रही है, पाल खोल देना। हवा के साथ ही नाव चली जाती है। प्रतीक्षा करना ठीक समय की और समर्पण कर देना। फिर तुम्हें पतवार नहीं चलानी पड़ती।
और पतवार चला कर शायद ही कभी कोई थोड़े से लोग पहुंचे हैं। उनको अंगुलियों पर गिना जा सकता है। इसलिए तो जैन धर्म बहुत प्रभावी नहीं हुआ; जगत में उसकी दूर-दूर तक खबर नहीं पहुंच सकी; करोड़ों-करोड़ों लोग उस मार्ग पर चल नहीं सके। जो थोड़े से इने-गिने अनुयायी हैं, वे भी चलते नहीं, नाम मात्र को जैन हैं। जैन शब्द आता है जिन शब्द से। जिन का अर्थ है: जीतने वाला; जिसने जीता, जिसने जीत कर दिखला दिया।
लाओत्से कहता है कि हार जाओ, सर्वहारा हो जाओ, स्त्रैण हो जाओ। तो तुम पहुंच जाओगे । स्त्रैण होने का अर्थ है : नदी में पतवार मत उठाओ, पाल तान दो।
अब हम लाओत्से के सूत्र को समझें ।
'बड़े देश को नदीमुख नीची भूमि की तरह होना चाहिए।'
जहां नदी गिरती है सागर में, वैसा होना चाहिए।
'क्योंकि वह संसार का संगम है, और संसार का स्त्रैण गुण है। स्त्री पुरुष को मौन से जीत लेती है, और मौन से वह नीचा स्थान प्राप्त करती है।'
नीचे रखती है स्त्री अपने को, पीछे रखती है स्त्री अपने को, और सदा आगे रहती है। और सदा ऊपर रहती है।
कहानी है, सुनी होगी तुमने, कि अकबर ने बीरबल को कहा कि मेरे इस दरबार में क्या ऐसे लोग भी हैं जो अपनी स्त्री से डरते न हों? बीरबल ने कहा, बड़ा जटिल है पता लगाना। क्योंकि उनके अंतःकक्षों में कौन प्रवेश करे? लेकिन कोई तरकीब निकालेंगे। कुछ लोग जरूर होंगे।
तरकीब निकाली गई। सारे दरबारी बुला लिए गए। और अकबर ने कहा कि ईमान से, धोखा मत देना, यह तुम्हारी सच्चाई की कसौटी है कि जो भी लोग स्त्रियों से डरते हों, अपनी स्त्रियों से, वे एक कतार में खड़े हो जाएं। सारे लोग खड़े हो गए, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर । अकबर भी हैरान हुआ, इतने लोग स्त्रियों से डरते हैं। फिर इससे भी हैरान हुआ कि कम से कम एक आदमी तो है, और इस आदमी को वह हमेशा दब्बू समझता था। यह आदमी कोई बड़ी अकड़ का आदमी न था । फिर भी उसने कहा कि धन्य है मेरा भाग्य; कम से कम मेरे दरबार में एक आदमी है। तुम अपनी स्त्री से नहीं डरते ?
उसने कहा, आप मुझे गलत मत समझें। घर से जब निकलने लगा, मेरी पत्नी ने कहा, जहां भी भीड़-भाड़ हो वहां खड़े मत होना। अब उधर सब खड़े हैं, तो मैं उधर भीड़-भाड़ में खड़ा नहीं हो सकता।
ऐसा पुरुष खोजना कठिन है जो अपनी स्त्री की नहीं मान कर चलता। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। लाओत्से यही समझा रहा है। लाओत्से यही कह रहा है कि यह स्वाभाविक है। अगर प्रेम है पुरुष का स्त्री से तो वह मान कर चलता ही है। जैसे तुम्हारे भीतर मस्तिष्क है और हृदय है; मस्तिष्क पुरुष है। और हृदय स्त्री है। अगर तुम प्रेमपूर्ण हो तो तुम हृदय की मान कर चलोगे, मस्तिष्क की मान कर नहीं। वैसे ही दो व्यक्ति जब प्रेम में पड़ जाते हैं तो स्त्री हृदय है और पुरुष मस्तिष्क है। तब भी हृदय की ही मान कर चलोगे जब तुम प्रेम में पड़ जाते हो।