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ताओ उपनिषद भाग ५
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तभी सम्हाल. सकोगे जब तुम्हारे भीतर स्त्रैण प्रेम-समर्पण होगा। नहीं तो तुम न सम्हाल सकोगे। क्योंकि परमात्मा को सम्हालना एक महानतम गर्भ है, उससे बड़ा कोई गर्भ नहीं। क्योंकि उससे तुम्हारा ही पुनर्जन्म होगा, नया जन्म होगा। तुम अपने ही भीतर को पुनः नए रूप, नए आयाम में उदघाटित करोगे। तुम ही तो जन्मोगे अपने भीतर से ।
स्त्रैण का अर्थ है : भीतर जो खाली है और जिसमें ग्राहकता है। स्त्री लेती है; पुरुष देता है। तुम लेने वाले बनो, गड्ढे की भांति । क्योंकि परमात्मा तो दे ही रहा है; उसकी वर्षा तो हो ही रही है।
पुरुष आक्रामक है। कोई स्त्री इतना भी आक्रमण नहीं करती पुरुष पर कि उससे कहे कि मैं तुझसे प्रेम करती हूं। स्त्री प्रतीक्षा है; पुरुष की प्रतीक्षा करेगी कि वह कहे कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। वह स्वीकार करेगी, अस्वीकार करेगी; लेकिन आक्रमण नहीं करेगी। वह राह देखेगी।
जो सत्य की खोज में चले हैं, उन्हें आक्रामक नहीं होना चाहिए। अन्यथा वे न पहुंच सकेंगे। पुरुष की तरह परमात्मा तक न पहुंचा जा सकेगा - अकड़ से भरे हुए। विनम्र, प्रतीक्षा से, राह जोहते, जैसे एक प्रेयसी राह देख रही बैठे घर के द्वार पर अपने प्रेमी के आने की, सब तरह से आकुल, फिर भी आक्रामक नहीं ।
अनाक्रामक आकुलता भक्ति है । व्याकुलता पूरी है, लेकिन व्याकुलता में आक्रमण नहीं है कि उठ पड़े, कि हमला कर दे।
जो भी स्त्री आक्रामक होती है वह आकर्षक नहीं होती। अगर कोई स्त्री तुम्हारे पीछे पड़ जाए और प्रेम का निवेदन करने लगे तो तुम घबड़ा जाओगे। तुम भागोगे। क्योंकि वह स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार कर रही है, स्त्रैण नहीं है । स्त्री का स्त्रैण होना, उसका माधुर्य इसी में है कि वह सिर्फ प्रतीक्षा करती है। वह तुम्हें उकसाती है, लेकिन आक्रमण नहीं करती। वह तुम्हें बुलाती है, लेकिन चिल्लाती नहीं । उसका बुलाना भी बड़ा मौन है। वह तुम्हें सब तरफ से घेर लेती है, लेकिन तुम्हें पता भी नहीं चलता। उसकी जंजीरें बड़ी सूक्ष्म हैं; वे दिखाई भी नहीं पड़तीं। वह बड़े पतले धागों से, सूक्ष्म धागों से तुम्हें सब तरफ से बांध लेती है; लेकिन उसका बंधन कहीं दिखाई भी नहीं पड़ता । पुरुष के बंधन बड़े पार्थिव हैं, दिखाई पड़ने वाले हैं। स्त्री के बंधन बड़े अदृश्य हैं, बड़े आत्मिक हैं,. अपार्थिव हैं; दिखाई नहीं पड़ते ।
सत्य या परमात्मा की तरफ तुम स्त्री की भांति जाना।
कृष्ण के आस-पास जो परम धारणाओं का जाल रचा गया, वह यही है। कृष्ण यानी परमात्मा । कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो खींचे। और सारा जगत उस परमात्मा की प्रेयसी है, गोपी है। धारणा यही है कि परमात्मा को पाना हो तो परमात्मा पुरुष और तुम स्त्री बन जाना। और तुम जो ताना-बाना बुनो, वह प्रेम का और प्रार्थना का हो। उसमें अगाध समर्पण हो, अगाध श्रद्धा हो; पर कोई भी चीज आक्रमण का रंग न ले पाए।
स्त्री अपने को नीचे रखती है। लोग गलत सोचते हैं कि पुरुषों ने स्त्रियों को दासी बना लिया। नहीं, स्त्री दासी बनने की कला है। मगर तुम्हें पता नहीं, उसकी कला बड़ी महत्वपूर्ण है। और लाओत्से उसी कला का उदघाटन कर रहा है। कोई पुरुष किसी स्त्री को दासी नहीं बनाता। दुनिया के किसी भी कोने में जब भी कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रेम में पड़ती है, तत्क्षण अपने को दासी बना लेती है। क्योंकि दासी होना ही गहरी मालकियत है। वह जीवन का राज समझती है।
मालिक बनने का अर्थ अकड़ है। और जो अकड़ा हुआ है वह मालिक न हो पाएगा। वह टूटेगा । स्त्री अपने को नीचे रखती है; चरणों में रखती है। और तुमने देखा है कि जब भी कोई स्त्री अपने को तुम्हारे चरणों में रख देती है। तब अचानक तुम्हारे सिर पर ताज की तरह बैठ जाती है। रखती चरणों में है, पहुंच जाती है बहुत गहरे, बहुत ऊपर। तुम चौबीस घंटे उसी का चिंतन करने लगते हो। छोड़ देती है अपने को तुम्हारे चरणों में, तुम्हारी छाया बन जाती है।