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कृष्ण में राम-रावण आलिंगन में हैं
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देख - दिखाव भी अच्छा, व्यक्तित्व शानदार, प्रभावशाली । तू शादी कर सकती है; लड़का मुझे पसंद आ गया। और
जिस बात से मुझे अड़चन थी वह अब न रही। क्योंकि उसके अभिनय से पक्का मुझे भरोसा आ गया कि यह कोई अभिनेता नहीं है। उसके अभिनय से मुझे पक्का भरोसा आ गया कि यह कोई अभिनेता नहीं है। तू कर सकती है शादी ।
मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि यह तुमने क्या किया? उसने कहा, बाप की इज्जत भी तो बचानी पड़ती है। अब जब बात इस सीमा तक चली गई कि लौटने का उपाय ही नहीं दिखता तो आज्ञा देना ही उचित है।
प्रेम की आज्ञा भी बाप तभी देता है, मां तभी देती है, जब बात इस सीमा तक पहुंच गई कि लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। बेमर्जी से ही देता है। क्योंकि यह आखिरी टूट है। अब यह बेटी, यह बेटा किसी और का हो गया। मगर यह जरूरी है।
मां तो चाहेगी कि बेटा कभी किसी के प्रेम में न पड़े। ऐसी भी मां हैं जो इतना दबा देती हैं गर्दन को कि बेटा किसी के प्रेम में पड़ ही नहीं सकता। पर उन्होंने मार डाला। उन्होंने हत्या कर दी। उन्होंने जन्म न दिया, मौत दे दी।
इसीलिए तो सास और बहू की कलह शाश्वत है। उससे बचने का कोई उपाय नहीं दिखता। क्योंकि मां अकेली अधिकारिणी थी प्रेम की। फिर अचानक एक अजनबी औरत को यह लड़का घर ले आया, जिसका न कोई पता-ठिकाना, न कोई हिसाब । कल की अजनबी और अचानक पूरे हृदय पर काबू कर लिया उसने ! और जिस बेटे को मैंने जन्म दिया- मां सोचती है - वह मेरा न रहा, और एक दूसरी औरत का हो गया ! यह कलह बड़ी गहरी है।
भला करने की भी अतिशय कोशिश बरे में ले जाएगी। क्योंकि बेटे को अहंकार, बेटी को अपना अहंकार निर्मित करना जरूरी है। प्रकृति चाहती है कि वे व्यक्ति बनें। और व्यक्ति बनने का उनके पास एक ही उपाय है कि वे आज्ञा तोड़ें। इसलिए बेटों को इस तरह की आज्ञा देना जिनको वे तोड़ भी सकें और उनका कोई नुकसान भी न हो यह बड़ी नाजुक कला है। बेटे को ऐसी कुछ आज्ञाएं जरूर देना जिनको वह तोड़ सके, और तोड़ कर उसका अहंकार निर्मित हो सके, लेकिन उनको तोड़ने में वह बर्बाद न हो जाए।
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बच्चों को जन्म देना बहुत आसान, मां-बाप बनना बहुत कठिन है। लाओत्से कहता है, 'संत भी लोगों की हानि नहीं करते।'
वह तभी होता है जब शुभ-अशुभ दोनों संगीत को उपलब्ध हो जाते हैं। तब संत चेष्टा नहीं करता किसी को बदलने की, पर उसकी निश्चेष्टा में ही दूसरे बदलते हैं। वह किसी की गर्दन को नहीं जकड़ लेता, लेकिन उसकी मौजूदगी में, उसकी हवा में लोग बदलते हैं। वह किसी को बदलने नहीं जाता, लेकिन परोक्ष, उसका होना ही, लोगों के लिए परिवर्तन का कारण हो जाता है।
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इसी को तो लाओत्से कहता है, बिना किए करने की कला। संत तो सिर्फ एक दीए की भांति है, जिसकी रोशनी में तुम्हें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं । और तुम खुद ही अपने को बदलने में लग जाते हो। क्योंकि जब तुम्हें दिखाई पड़ता है मार्ग तो तुम कब तक भटकोगे ?
मगर दो तरह के लोग हैं दुनिया में बड़ी पुरानी सूफी कथा है कि एक मूढ़ और एक ज्ञानी एक जंगल से गुजरते थे। दोनों रास्ता भूल गए थे। बिजली चमकी। बड़ी प्रगाढ़ बिजली थी। अंधकार क्षण भर को कट गया। मूढ़ ने आकाश में बिजली को देखा। ज्ञानी ने नीचे रास्ते को देखा। मूढ़ ने जब बिजली चमकी तो ऊपर देखा । जब बिजली चमकी तो ज्ञानी ने नीचे देखा। उस नीचे देखने में रास्ता साफ हो गया ।
जब कभी तुम किसी संत के पास रहो, नीचे देखना, अपने पैरों के पास देखना। क्योंकि उसकी रोशनी वहां पड़ रही है। संत के चेहरे को देखने से कुछ भी न होगा; उसका चेहरा कितना ही मनमोहक हो । संत के शब्दों से प्रभावित होने से कुछ भी न होगा; उसके शब्द कितने ही गहरे हों। संत की महिमा को गाने से कुछ भी न होगा;