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ताओ उपनिषद भाग ५
की उत्तेजना होती है, मध्य तो शांत होता है। मध्य तो ऐसे होता है जैसे है ही नहीं। अति में तो बड़ा शोरगुल होता है; मध्य में तो सब शांत हो गया होता है। सिर्फ मौन संगीत होता है। तुम संत को चूक जाते हो अक्सर, सज्जन को कभी नहीं चूकते। सज्जन को तुम महात्मा बना लेते हो; संत तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ेगा।
इसे थोड़ा ठीक से समझो। अपराधी भी दिखाई पड़ जाएगा। जो आदमी किसी की हत्या करेगा, बराबर दिखाई पड़ जाएगा। सज्जन भी दिखाई पड़ जाएगा। जो किसी को बचाने में अपनी हत्या करेगा, वह भी दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन जो न किसी की हत्या करेगा न अपनी हत्या करेगा, वह तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा? संत कोई ईवेंट नहीं है, वह कोई घटना ही नहीं है। इसलिए अखबार में उसकी खबर ही न छपेगी। दुर्जन की खबर छपेगी; सज्जन की छपेगी। कोई किसी की हत्या कर देगा तो छपेगी; कोई अस्पताल को दान दे देगा तो छपेगी। संत न किसी की हत्या करता है और न जाकर कोढ़ियों के पैर दबाता है। अखबार के बाहर रह जाता है। संत जैसे इतिहास के बाहर पड़ जाता है।
घटनाओं का जहां जाल है वहां तो अतियां हैं। हिटलर की खबर छपती है, गांधी की खबर छपती है। लाओत्से की क्या खबर छपनी है? लाओत्से होता भी है कि नहीं, इसका भी पक्का पता नहीं है। संत सदा संदिग्ध बने रहते हैं। बाद में भी लोग पूछते हैं, ऐसा आदमी हुआ? जब वह मौजूद होता है तब लोग उसे देख नहीं पाते, पहचान नहीं पाते। बाद में संदेह उठता है, क्योंकि इतिहास में कहीं उसकी कोई लकीर नहीं छूट जाती। दुर्जन भी बड़ी लकीर छोड़ता है।
एक आदमी ने कैलिफोर्निया में पिछले कुछ दिनों पहले नौ आदमियों की हत्या की। सारे अखबार अमरीका के उसकी हत्या की चर्चा से भर गए। सुर्खियां बड़े अक्षरों में। अदालत में जब उससे पूछा गया कि तुमने क्यों ये हत्याएं की? उसने कहा कि जिंदगी हो गई, मैंने कभी अपना नाम अखबार में नहीं देखा। ऐसे ही गुजर जाएं? इन आदमियों से मुझे कोई विरोध न था। इनमें से कुछ को तो मैं जानता ही नहीं कि वे कौन हैं, क्योंकि मैंने पीठ के पीछे से गोली मारी है। तो मुझे चेहरे का भी कोई पता नहीं है। लेकिन अखबार में बिना छपे नहीं मरना चाहता था।
जैसे पानी की प्यास लगती है, ऐसे अखबार में छपने की छपास लगती है। बुरा आदमी छपता है। इसीलिए तो राजनीतिज्ञों से भरा रहता है अखबार। क्योंकि इनसे ज्यादा दुर्जन तुम खोज न सकोगे। सज्जनों की भी खबर छपती है।' कोई दान करता, कोई बड़ा मंदिर बनाता, कोई अस्पताल खड़ा करता, कोई कालेज-स्कूल खोलता, उसकी भी खबर छपती है। लेकिन संत की खबर छपने का कोई कारण नहीं है।
संत बिलकुल अकारण है। वह पानी पर खींची लकीर जैसा है; कुछ पीछे बनता नहीं। लाओत्से ने कहा है, संत ऐसा है जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं, चिह्न नहीं छूट जाते। पक्षी उड़ गया; आकाश खाली का खाली रह जाता है। पीछे लोग खोज-बीन करते हैं कि यह आदमी हुआ भी!
लाओत्से अभी तक संदिग्ध है। अभी तक इतिहासज्ञ राजी नहीं हैं कि यह आदमी हुआ। और संत के पास लोगों पर जो प्रभाव भी पड़ता है वह प्रभाव इतना काव्यात्मक होने वाला है क्योंकि संत एक संगीत है, उसका प्रभाव भी एक काव्य है-उस काव्य के कारण वह पुराण जैसा लगेगा, इतिहास जैसा कभी नहीं लगेगा।
समझने की कोशिश करो। लाओत्से को प्रेम करने वाले लोगों ने लिखा है कि लाओत्से बूढ़ा ही पैदा हुआ। अब यह कहीं होता है? यह तो बात पागलपन की हो गई। अस्सी साल का पैदा हुआ। अस्सी साल मां के गर्भ में रहा। और जब पैदा हुआ तो उसके बाल सफेद थे—हिमश्वेत। एक भी बाल काला नहीं था। अब यह तो अपने हाथ से लाओत्से को बाहर फेंकना है इतिहास के। ऐसा तो कहीं होता नहीं। लेकिन यह काव्य है, यह मिथ है, पुराण है।
और लाओत्से जैसे व्यक्ति के जीवन में इतना अंतर-संगीत है कि उसका प्रभाव भी काव्य में ही पड़ता है। मानने वाले यह कह रहे हैं कि लाओत्से जन्म के साथ ही बोधपूर्वक जीया। इसलिए बूढ़ा है। अधिक लोग तो बचकाने ही मर जाते हैं। इसमें हमें कोई अड़चन नहीं है। अस्सी साल का आदमी भी बचकाना ही मरता है।
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