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________________ कृष्ण में राम-रावण आलिंगन में है एक ही चीज बचने जैसी है और वह है अति। और मन की पूरी वृत्ति ऐसी है कि वह अति पर जाना पसंद करता है। या तो तुम ज्यादा खाओगे या उपवास करोगे। या तो दिन भर होटल में बैठे हुए पाओगे या उरली कांचन चले जाओगे। बीच में न रुकोगे। या तो भोग में पागल रहोगे या त्याग में पागल हो जाओगे। बीच में न रुकोगे। घड़ी के पेंडुलम की तरह हो; या तो बाएं जाओगे या दाएं जाओगे; बीच में न ठहरोगे। . और लाओत्से कहता है, बीच में ठहर जाना ही वह नाजुक कला है। कभी अति पर मत जाओ। सभी अतियां गलत हैं। क्योंकि अति पर जाने का अर्थ ही यह हुआ कि तुम किसी चीज के विपरीत जा रहे हो। अगर तुम्हारे मन में क्रोध है तो अति है कि तुम कसम खा लो कि मैं कभी क्रोध न करूंगा। अब यह अति हो गई। अब तुम क्रोध के दुश्मन होकर बैठ गए। जिसके तुम दुश्मन हो गए उसका उपयोग कैसे करोगे? जिससे झगड़ा मोल ले लिया अब तुम उसे संजोओगे कैसे? संगीत कैसे बनाओगे उसका? अब तो तुमने पीठ कर ली। अब तुमने एक अंग काटने की कसम खा ली। तुम पंगु हो जाओगे। इसलिए धर्म के नाम पर कुछ लोग अंधे हो गए हैं, कुछ लोग लंगड़े होकर बैठे हैं, कोई लूला हो गया है, कोई बहरा हो गया है। धर्म के नाम पर लोग अंगों को काट रहे हैं; उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। अति पर तुम गए कि विरोध शुरू हुआ। कामवासना जीवन में है; तुम ब्रह्मचर्य की कसम ले लो। फिर तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि यह अति हो गई। और अति पर कोई भी ज्यादा देर तक नहीं रह सकता। घड़ी का पेंडुलम भी अति तक जाता है कि फिर लौटता है। मध्य में ही कोई सदा रह सकता है, लेकिन अति पर कोई सदा नहीं रह सकता। तुम कोशिश करो घड़ी के पेंडुलम पर कि एक कोने पर, अति पर वह रुक जाए। कैसे रुकेगा? हां, बीच में अगर रोक दो तो रुक सकता है। वहां शाश्वत विश्राम हो सकता है। मध्य शाश्वत विश्राम है। अति, छोर तो परिवर्तन है। वहां से तो जाना पड़ेगा। सुख एक अति है; दुख एक अति है। इसीलिए तो ज्यादा देर तुम दुखी भी नहीं रह सकते, ज्यादा देर सुखी भी नहीं रह सकते। सुख भी आएगा और जाएगा। दुख भी आएगा और जाएगा। लेकिन अगर तुम दोनों के मध्य ठहर जाओ। उस मध्य के ठहरने को हमने शांति कहा है, संतोष कहा है। वह न सुख है, न दुख। वह दोनों के ठीक बीच में रुक जाना है। बड़ी नाजुक कला है। और जरा सा ही तुम मध्य से इधर-उधर हुए कि अड़चन शुरू हो जाएगी। इसीलिए तो ज्ञानी कहते हैं, खड्ग की धार है, रेजर्स एज; इधर गिरे तो कुआं है, उधर गिरे तो खाई है। मध्य में मार्ग है। बुद्ध ने अपने मार्ग को नाम दिया है : मज्झिम निकाय, दि मिडल वे। और लाओत्से की सारी शिक्षा गोल्डन मीन, मध्य में रुक जाने की है। इसको वह कहता है, छोटी मछली को भंजने की कला। जरा इधर-उधर हुए कि भटके। ठीक मध्य में रहे तो ही मछली बचेगी। तो ही ज्यादा न भुंजेगी, कम भुंजी न रहेगी। 'जो संसार की हुकूमत ताओ के अनुसार चलाता है, उसे पता चलेगा कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो बैठती हैं। यह नहीं कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो देती हैं, लेकिन वे लोगों को कष्ट देना बंद कर देती हैं। इतना ही नहीं कि वे लोगों को हानि पहुंचाना बंद कर देती हैं, संत स्वयं भी लोगों की हानि नहीं करते।' इस वचन को याद रख लेना। क्योंकि साधारणतः तुम्हें लगेगा, संत तो वही है जो किसी की हानि नहीं करता। और लाओत्से कह रहा है कि संत भी स्वयं लोगों की हानि नहीं करते। इसका मतलब है, संत से भी हानि की संभावना है। अगर संत सज्जन हो तो हानि होगी। और सज्जन और संत में फासला करना बहुत ही मुश्किल है। छोटी मछली मूंजना भी आसान, संत और सज्जन में फासला करना बहुत मुश्किल है। अक्सर तो यह होगा कि सज्जन तुम्हें संत मालूम पड़ेगा और संत को तुम चूक जाओगे। क्योंकि अति दिखाई पड़ती है, मध्य दिखाई नहीं पड़ता। अति 293
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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