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कृष्ण में राम-रावण आलिंगन में हैं
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जरूरत नहीं है। कोई भी तो नहीं कहता कि धूल धूल जैसी है। नहीं, तुम्हें सोना सोना जैसा ही है, और तख्त और ताज का तुम्हें कोई रस है । फिर बड़े मजे की बात यह है कि तुम इसमें कहते हो कि मुझे तुम्हारे महलों से कुछ भी लेना-देना नहीं, मेरे लिए उनका मूल्य दो कौड़ी का है। लेकिन तुमसे कह कौन रहा है कि तुम महलों में आओ ? तुम किससे यह बात कर रहे हो ?
और बड़ा आश्चर्य यह है कि साधुओं ने संन्यासियों ने इस तरह के गीत लिखे हैं, सम्राटों ने कभी नहीं लिखे । सम्राट को लिखना चाहिए कि मुझे तुम्हारी धूल से कोई प्रयोजन नहीं; तुम्हारा झोपड़ा मेरे लिए दो कौड़ी का है; रहे आओ तुम, मेरी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं । सम्राट लिखते नहीं यह बात । संन्यासी क्यों लिखता है ? साधु क्यों लिखता है ?
न, यह भिखारी है, भिक्षु नहीं है । आकांक्षा तो इसकी भी महल में होने की है। अब यह अपने दंभ को किसी तरह भर रहा है कि नहीं, तुम्हारा महल दो कौड़ी का है। अगर दो कौड़ी का ही है तो दो कौड़ी के महल पर यह गीत क्यों लिख रहे हो ? और सुनने वाले जो चारों तरफ बैठे हैं- जो उतने ही अंधे हैं जितने उनको चलाने वाले वे सब सिर हिला रहे हैं कि बड़ी गजब की बात है। क्योंकि वे भी भिखमंगे हैं, उनको भी इससे राहत मिलती है। उनको भी लगता है कि हां, रखा क्या है महल में!
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इसलिए नहीं कि महल में कुछ रखा नहीं है। तुमने कहानी सुनी है लोमड़ी की जो अंगूरों तक न पहुंच सकी। क्योंकि अंगूर बड़े ऊंचे थे, छलांग बड़ी छोटी थी। लेकिन लोमड़ी का भी अहंकार यह मानने को नहीं होता कि मैं पहुंच नहीं सकी। जब वह वहां से वापस लौटने लगी और एक खरगोश ने उससे पूछा कि क्या हुआ मौसी ? तो उसने कहा, अंगूर खट्टे हैं, खाने योग्य नहीं ।
जिन अंगूरों तक तुम पहुंच नहीं पाते वे खट्टे हो जाते हैं। उनके खट्टेपन में तुम अपने अहंकार को बचा लेते हो, अपने दंभ को सम्हाल लेते हो।
भिखारी कहता है, अंगूर खट्टे हैं; बुद्ध जानते हैं। वह सांत्वना नहीं है, वह अनुभव है। इसलिए बुद्ध के भीतर सम्राट की प्रतिभा है। भिखारी सिर्फ दीन-हीन है । बुद्ध का भिखारीपन बड़ा समृद्ध है । बुद्ध के भिखारीपन में बड़ा साम्राज्य छिपा है। भिखारी के हाथ में सिर्फ खाली पात्र है, उसमें कुछ छिपा नहीं है। उसमें सिर्फ वासना के इंद्रधनुष टूटे पड़े हैं, सपने उजड़े पड़े हैं; एक हताशा है, एक दीनता है। फिर अपनी दीनता को छिपाने की वह कोशिश कर रहा है।
अगर तुम एक ऐसा बच्चा पैदा कर सको जिसमें क्रोध न हो तो तुम पाओगे उसमें रीढ़ नहीं है। वह जीवन में खड़ा ही न हो सकेगा। उसमें अस्मिता भी न जगेगी । उसका अहंकार भी निर्मित न होगा। और जिसका अहंकार निर्मित न हो गया हो वह समर्पण नहीं कर सकता। वास्तविक समर्पण तभी आता है जब तुम्हारे भीतर बड़ा प्रगाढ़ अहंकार होता है। जैसे कि वास्तविक भिक्षु तुम तभी बनते हो जब तुम सम्राट रह चुके हो।
इसलिए तुम्हें मेरी बात बड़ी उलटी लगेगी। मैं चाहता हूं कि पहले तुम अपने अहंकार को निर्मित करो, सबल करो, शक्तिशाली करो । लड़ो संसार से, अपने व्यक्तित्व को संगठित करो। एक इंटीग्रेशन, एक क्रिस्टलाइजेशन तुममें आ जाए; तुम एक मजबूत अहंकार के बिंदु हो जाओ। उसके बाद ही समर्पण संभव है। क्योंकि जो तुम्हारे पास है ही नहीं, उसे तुम छोड़ोगे कैसे? जो तुमने कभी पाया ही नहीं, उसका विसर्जन कैसे करोगे ?
आधा जीवन आदमी को अहंकार संयोजित करने में लगाना चाहिए, और आधा जीवन विसर्जित करने में । और जब संयोजित करना और विसर्जित करना दोनों संयुक्त हो जाते हैं तब तुम्हारे जीवन में विरोध के बीच सामंजस्य, संगीत का जन्म होता है।