________________
कृष्ण में राम-रावण आलिंगन में हैं
287
सज्जन अधूरा है; दुर्जन अधूरा है। संत पूरा है। पूरे का मतलब क्या है कि वहां सज्जन और दुर्जन का जो भी दश था वह खो गया, सज्जन - दुर्जन का जो विरोध था वह विलीन हो गया। वहां सज्जन और दुर्जन गले लग गए, आलिंगन में आबद्ध हो गए।
इसलिए हिंदुओं ने बड़ी गहरी खोज की है, और वह गहरी खोज यह है कि हमने परमात्मा में सब कुछ समाविष्ट किया है । ईसाई तो भरोसा ही नहीं कर पाते, यहूदी विश्वास नहीं कर पाते, पारसी मान ही नहीं सकते कि यह कैसी हिंदुओं की ईश्वर की धारणा है ! हिंदू कहते हैं, ईश्वर के तीन मुख हैं, वह त्रिमूर्ति है। उनमें एक विष्णु है, एक ब्रह्मा है, एक शिव है। उसमें ब्रह्मा तो जन्मदाता है, सृजनात्मक है, वह क्रिएटिव फोर्स है। उसमें विष्णु सम्हालने वाला है, व्यवस्था को बनाए रखने वाला है। और शिव विध्वंस है, वह डिस्ट्रक्टिव फोर्स है। और ये तीनों चेहरे एक ही हैं। वहां विध्वंस और सृजन दोनों मिल गए हैं। वहां कोई विरोध नहीं रह गया बुरे और भले में। वहां सब समाविष्ट हो गया है। और तब एक अपरिसीम ऊंचाई आती है।
तुम ऐसा ही समझो कि जैसे तुम कपड़ा बुनते हो ताने-बाने से ताने-बाने एक-दूसरे के विपरीत रखने पड़ते हैं। तो ही तो कपड़ा बनता है। तुम अगर ताने ही ताने से कपड़ा बुन दो तो कपड़ा बनेगा ही नहीं । तुम अगर बाने ही बाने से कपड़ा बुन दो तो भी कपड़ा न बनेगा। दोनों ही अधूरे रहेंगे। दोनों को मिला दो, वह जो विरोध है ताने-बाने का उस विरोध को तुम संयुक्त कर दो-उस विरोध पर ही तो कपड़ा निर्मित होता है।
राजगीर भवन बनाना है तो विपरीत ईंटों को दरवाजे पर जोड़ देता है। उनके विपरीत के तनाव में ही तो दरवाजे की ताकत है; उस पर ही तो भवन खड़ा होगा।
तुम्हारा सज्जन एकतरफा जुड़ी हुई ईंटें है। यह भवन गिरेगा। तुम्हारा दुर्जन भी एकतरफा है, यह भवन भी गिरेगा। एक ताना है, एक बाना है; एक काला है, एक सफेद है। लेकिन तुम दोनों को जोड़ दो। और दोनों के विरोध को विरोध में मत खड़ा करो; दोनों के विरोध को एक सामंजस्य बना लो । तब तक भवन बनेगा जो मजबूत है।
संत ऐसा भवन है जहां बुराई और भलाई दोनों एक ही तत्व में लीन हो गई हैं। ऐसे संत से किसी का अहित नहीं होता, क्योंकि ऐसे संत के भीतर कोई घृणा ही नहीं रह जाती, कोई हिंसा नहीं रह जाती, कोई क्रोध नहीं रह जाता, कोई तनाव नहीं रह जाता। ऐसा संत तुम्हें बदलना भी नहीं चाहता। ऐसे संत के पास तुम बदल जाओ, यह तुम्हारी मर्जी । ऐसा संत तुम्हारे पीछे आग्रहपूर्वक नहीं चलता। ऐसा संत तुम्हें तोड़ना फोड़ना नहीं चाहता। ऐसा संत तुम्हारे विरोध में नहीं है। और ऐसा संत तुम्हारे ऊपर खड़े होकर तुम्हारी निंदा, तुम्हारा तिरस्कार भी नहीं करता। तुम गलत भी हो तो भी तुम्हें नरक भेजने की आकांक्षा उसके भीतर नहीं उठती, क्योंकि वह जानता है, गलत भी स्वर्ग की सीढ़ी पर उपयोग में आ जाता है। क्योंकि वह जानता है कि इस अस्तित्व में तिरस्कार योग्य कुछ भी नहीं है। क्योंकि वह जानता है, सभी चीजों का उपयोग हो जाता है, और सभी चीजें उस परम संगीत में सहयोगी हैं। इनमें से कुछ भी हट जाए... ।
तुम थोड़ा सोचो; एक बच्चा पैदा हो जो बिना क्रोध का हो। क्योंकि ऐसा बच्चा पैदा किया जा सकता है। क्रोध के हार्मोन हैं, वे काटे जा सकते हैं। जैसे कि सेक्स के हार्मोन हैं। एक नपुंसक बच्चा पैदा होता है। नपुंसक व्यक्ति की तकलीफ क्या है? और नपुंसक का इतना हीन भाव क्या है ?
नपुंसक के भीतर स्त्री-पुरुष के ताने-बाने नहीं हैं। साधारण पुरुष के भीतर स्त्री भी छिपी है । साधारण स्त्री के भीतर पुरुष भी छिपा है । वे ताने-बाने हैं। कोई पुरुष न तो पुरुष है अकेला और न कोई स्त्री अकेली स्त्री है। सभी दोनों का जोड़ हैं। होना ही चाहिए। क्योंकि तुम अपनी मां और बाप के जोड़ से पैदा हुए हो । आधा तुम्हारे बाप का हाथ है, आधा तुम्हारी मां का । तुम्हारे आधे सेल पिता से आए हैं, आधे मां से । आधा तुम्हारे भीतर पुरुष है, आधा तुम्हारे भीतर स्त्री है। फर्क इतना ही है। जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं; एक सिक्के का पहलू ऊपर होता है,