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ताओ उपनिषद भाग ५
लेकिन पूरे कुरान की प्रशंसा गांधी के बस की बात नहीं है। हिंदू भीतर है। हिंदू को दबाया हुआ है। ऊपर से वे कहते हैं कि अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, पर गहरे में तो राम ही बैठा है। इसलिए मरते वक्त जब गोली लगी तो अल्लाह नहीं निकला। जब गोली लगी तो राम हे राम-की आवाज निकली। जो गहरे में दबा था वही तो मरते वक्त निकलेगा। उस वक्त अल्लाह खो गया। उस वक्त बुद्ध-महावीर की कोई याद न आई। उस घड़ी में धोखा भी तो नहीं दिया जा सकता। मौत की घड़ी में, आदमी के भीतर जो छिपा है, वही तो प्रकट होगा। तो राम की आवाज निकली।
व्यक्ति अपने को ऊपर से दबा ले तो अपने साथ तो आत्म-हिंसा करता ही है, उसी अनुपात में, जो उसके पास हों, उनके साथ भी हिंसा करता है। इसलिए तुम गुरुओं को पाओगे कि वे शिष्यों को करीब-करीब मार डालते हैं। उनका काम ही यही है कि शिष्य को बिलकुल मिटा दें। और जब शिष्य बिलकुल नकली हो जाए, न के बराबर हो जाए, तभी वे समझते हैं कि आज्ञा का पालन हुआ, दीक्षा पूरी हुई।
एक तो शुभ है जो हम अशुभ से लड़ कर निर्मित करते हैं; लाओत्से इसको शुभ नहीं कहता। एक दूसरा शुभ भी है जो हम अशुभ से लड़ कर नहीं, अशुभ से एक गहन सामंजस्य स्थापित करके उपलब्ध करते हैं। रात और दिन को हम लड़ाते नहीं। लड़ाने में भूल है; क्योंकि लड़ाई वहां हो नहीं रही है। रात और दिन एक ही अस्तित्व के हिस्से हैं। फूल और कांटे को हम लड़ाते नहीं। लड़ाने में भ्रांति है; क्योंकि फूल और कांटे एक ही जीवन-धार से निकले हैं। शुभ और अशुभ को हम लड़ाते नहीं; शुभ और अशुभ को हम एक संगीत और सामंजस्य में बांधते हैं। एक ऐसी व्यवस्था लाते हैं जिसमें शुभ अशुभ को तोड़ता नहीं, बचाता है; जहां शुभ अशुभ के विपरीत नहीं होता, बल्कि अशुभ की ही पूर्णाहुति होता है; जहां अंधेरा और प्रकाश मिल जाते हैं; और जहां शैतान और ईश्वर में कोई विरोध नहीं रह जाता।
लाओत्से कहता है, जब ऐसे शुभ की दशा आ जाए तभी तुम समझना कि मौलिक स्वभाव उपलब्ध हुआ। क्योंकि स्वभाव में कोई संघर्ष नहीं हो सकता। और तभी तुम शांत हो सकोगे, उसके पहले नहीं। तब न तो तुम किसी को दबाओगे, न अपने को दबाओगे। तब तुमने सारे स्वरों को सजा लिया, और सारे स्वरों के बीच जो तनाव था वह . विसर्जित कर दिया, और सारे स्वरों को एक लयबद्धता में बांध लिया।
एक पागल आदमी उन्हीं शब्दों को बोलता है जिनको एक संगीतज्ञ भी गीत में बांधता है। शब्दों में कोई भेद नहीं है; वही अल्फाबेट है। लेकिन पागल आदमी के बोलने में और संगीतज्ञ के गीत में क्या फर्क है? शब्द वही हैं; . व्यवस्था का भेद है। संयोजन अलग-अलग है।
तुम भी वही शब्द बोलते हो और एक कवि भी वही शब्द बोलता है। भेद क्या है? तुम शब्दों के बीच संगीत को नहीं खोजते; कवि शब्दों के बीच संगीत को खोजता है। शब्दों को इस भांति जमाता है कि शब्द गौण हो जाते हैं, लयबद्धता प्रमुख हो जाती है। शब्द केवल सहारे हो जाते हैं लयबद्धता को प्रकट करने के। शब्द तो तुम्हें भूल भी जाएंगे, लेकिन लयबद्धता तुम्हारे भीतर गूंजती रह जाएगी। जितना बड़ा संगीतज्ञ हो उतनी ही बड़ी उसकी कला होती है–विरोध के बीच सामंजस्य स्थापित कर लेने की।
विरोध के बीच अविरोध को खोज लेना ही परम ज्ञान है। और जहां-जहां तुम्हें विरोध दिखाई पड़े, अगर तुम लड़ने में पड़ गए तो तुम सदा अधूरे रहोगे। अगर तुम्हारे संतत्व में केवल शुभ ही रहा और अशुभ को तुमने काट डाला तो तुम्हारा संतत्व मुर्दा रहेगा, या बेस्वाद। उसमें नमक न होगा। अगर तुम्हारे संतत्व में तुम्हारे भीतर का शैतान समाविष्ट हो गया हो, अगर तुम्हारे संतत्व ने शैतान का विरोध न किया हो, बल्कि शैतान को आत्मसात कर लिया हो, तुम्हारा दिन तुम्हारी रात को पी गया हो, और दोनों एक ही नदी के दो कूल-किनारे रह गए हों, जरा भी विरोध न हो, तभी तुम पूरे हो सकोगे। तभी तुम टोटल, समग्र हो सकोगे।
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