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ताओ उपनिषद भाग ५
होना मुश्किल है। क्योंकि वह हजार दूसरी झंझटों में पड़ जाएगा सीधा-सादा आदमी। और इतनी बड़ी चालाकी नहीं कर सकता, इतना बड़ा पाखंड नहीं कर सकता।
जीसस अपने शिष्यों से बार-बार कहे हैं कि जब तक तुम्हारी नैतिकता तथाकथित सज्जनों से ऊंची न होगी तब तक तुम अपने को नैतिक मत समझना। जब तक तुम्हारा बोध पंडित के बोध से ज्यादा न हो तब तक तुम उसे ज्ञान मत समझना। और अगर तुम्हारी सच्चरित्रता पाखंडियों जैसी ही हो तो उसका दो कौड़ी मूल्य है; तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न पा सकोगे।
क्या फर्क है पाखंडी की नैतिकता में?
पाखंडी की नैतिकता ऊपर-ऊपर है; वह केवल आचरण मात्र है। उसके पीछे अंतस का हाथ नहीं है। अंतस विपरीत खड़ा है। इसलिए वह कर कुछ रहा है, है कुछ और; होने में और करने में बड़ा फासला है। एक बात।
दूसरी बात ध्यान रखनी चाहिए कि जो व्यक्ति भी जीवन को अपने ही विपरीत साधेगा वह आत्म-हिंसा भी करेगा और पर-हिंसा भी करेगा। वह अपने को भी जबरदस्ती तोड़ेगा-मरोड़ेगा। और जो अपने को तोड़ेगा-मरोड़ेगा वह दूसरे को भी छोड़ नहीं सकता। इसलिए तथाकथित साधु अपने शिष्यों के साथ हजार तरह की हिंसा करेंगे। वह हिंसा तुम्हें दिखाई भी न पड़ेगी, क्योंकि वह शिष्यों के हित में ही करेंगे।
तुम्हें समझ में आ सके इसलिए मैं गांधी का उदाहरण दूं। क्योंकि तुम गांधी से ज्यादा सज्जन आदमी न पा सकोगे इस सदी में। अति सज्जन हैं वे। लेकिन ध्यान रखना, सज्जन और संत का अंतर। उनकी सज्जनता बड़ी ऊंची है, लेकिन उसके भीतर वह सब छिपा है जो उन्होंने आचरण में थोपा है। लाओत्से अगर गांधी को देखता तो हंसता। वह हंसा था कनफ्यूशियस पर, क्योंकि कनफ्यूशियस उस समय गांधी जैसे आदमी थे।
अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम में गांधी कस्तूरबा से भी पाखाना साफ करवाना चाहते थे। बात में कुछ बुराई नहीं है। क्योंकि यही तो मजा है, सज्जन की बात तो बिलकुल तर्कयुक्त और सीधी मालूम पड़ेगी। क्योंकि वे कहते, पाखाना तुम करते हो तो फेंकेगा कोई दूसरा क्यों? तो न केवल अपना, बल्कि पूरे आश्रम के दिन बंटे हुए थे कि एक-एक दिन लोग पाखाने को फेंकें। कस्तूरबा के लिए यह कठिन था। उसकी पूरी दीक्षा, संस्कार इसके अनुकूल न थे। वह इतने तक राजी थी कि मैं अपना पाखाना फेंक दूं। लेकिन मैं किसी दूसरे का फेंकने के लिए राजी नहीं हूं। एक रात यह कलह इतनी बढ़ गई, क्योंकि गांधी कहते कि तुम दूसरे को दूसरा क्यों समझती हो! पाखाना फेंकना ही पड़ेगा। यह कलह इतनी बढ़ गई कि रात दो बजे गांधी ने कस्तूरबा का हाथ खींच कर आश्रम के बाहर निकाल दिया। कस्तूरबा गर्भवती थी, नौ महीने का गर्भ था। अंधेरी रात दो बजे उसे आश्रम के बाहर घसीट कर बाहर कर दिया।
इस सज्जनता में बड़ी हिंसा छिपी हुई मालूम पड़ती है। और तुम अपनी धारणा को दूसरे पर थोपना क्यों चाहो? तुम्हारी धारणा अच्छी भी हो तो तुम्हारे लिए है। इससे क्रोध क्यों उठे? और जब भी कोई अपनी धारणा दूसरे पर आरोपित करना चाहता है तो वह एक बड़ी सूक्ष्म हिंसा कर रहा है।
तुम दूसरे के सामने निवेदन कर सकते हो, तुम अपना मनोभाव प्रकट कर सकते हो; मानना न मानना दूसरे की मर्जी है-चाहे वह दूसरा पत्नी ही क्यों न हो। पत्नी भी तुम्हारी गुलाम नहीं है। और पत्नी को भी अपने जीने के ढंग की स्वतंत्रता है। अगर वह तुमसे राजी नहीं है तो क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। और क्रोध इस सीमा तक चला जाए, इस अति तक चला जाए, तो कठिनाई होती है।
लेकिन सज्जन हमेशा अति पर चला आएगा। सज्जन कभी मध्य में नहीं रह सकता। उसको अति पर जाना ही होगा। क्योंकि अगर वह मध्य में रहे तो खुद के भीतर जो दबा है वह बाहर आ जाएगा। यह मन की आंतरिक व्यवस्था है कि अगर तुम्हें किसी चीज को दबाना है तो तुम्हें बिलकुल मतांध होकर दबाना पड़ेगा। अगर तुमने थोड़ी
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