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छ बातें सूत्र के पूर्व ।
कु
एक ऐसा शुभ है जो अशुभ के विपरीत साधा जाता है। जैसे कोई करुणा को साधे क्रोध के विरोध में, अहिंसा को साधे हिंसा के विरोध में, सत्य को साधे असत्य के विरोध में । जिसका विरोध होगा, वह भी भीतर दबा हुआ सदा मौजूद रहेगा। विरोध से कोई छुटकारा नहीं है। विरोध से बड़ी नासमझी नहीं है। क्योंकि विरोध का अर्थ है, मैं क्रोधी हूं और अक्रोध को मैंने अगर आदर्श बना लिया, तो अक्रोध को अपने आचरण में ऊपर से थोपूंगा, क्रोध को भीतर-भीतर दबाए जाऊंगा। ऐसी घड़ी भी आ जाएगी कि कोई भी दूसरा पहचान न सके कि मैं क्रोधी हूं। लेकिन मैं अपने सामने तो क्रोधी ही रहूंगा। यह भी हो सकता है कि मेरे व्यवहार में क्रोध की झलक भी न आए, लेकिन मेरी अंतरात्मा में क्रोध ही क्रोध उबलेगा।
दमन से कुछ मिटाया नहीं जाता; दमन से तो मन और भर जाता है। इसलिए जो ब्रह्मचर्य को साधेगा कामवासना के विरोध में, जितनी कामवासना उसके मन में होगी उतनी तुम कामी से कामी व्यक्ति के भीतर न पाओगे। तुम्हारे साधु जितने क्रोधी हैं उतने तुम साधारणजनों को क्रोधी न पाओगे। और तुम्हारे साधुओं की आंखों से जैसी हिंसा झलकेगी वैसी तुम सैनिक की आंखों में भी न पाओगे जो कि हिंसा का ही व्यवसाय करता है।
अक्सर तो उलटा देखने में आता है। अगर तुम गौर से देखोगे तो शिकारी को तुम बड़ा सीधा-सादा पाओगे, जो कि खेल में हिंसा कर रहा है, जिसने हिंसा को कोई मूल्य ही नहीं दिया है, जो हिंसा में मजा ले रहा है। शिकारी को तुम सीधा-सादा पाओगे। शिकारियों के संबंध में सभी लोगों का अनुभव है कि वे बड़े मिलनसार होते हैं। अगर तुम कारागृह में जाओ, अपराधियों को देखो, तो उनकी आंखों में बच्चों जैसी झलक दिखाई पड़ेगी। अपराधी बहुत जटिल नहीं होता, बहुत साफ-सुथरा होता है। शायद इसीलिए अपराधी हो गया कि तुम जैसा चालाक नहीं है। शायद इसीलिए अपराध में पड़ गया कि चालाक समाज की चालाकी न सीख पाया। चालाक भी अपराध करते हैं, लेकिन उनका अपराध व्यवस्थित होता है, उनके अपराध के पीछे कानून का सहारा होता है। सीधा-सादा आदमी अपराध करता है, तत्क्षण फंस जाता है।
अपराधी की आंखों में भी तुम्हें बच्चों जैसी झलक मिलेगी। लेकिन वैसी झलक तुम्हारे मंदिरों में बैठे हुए साधुओं में न मिलेगी। साधु बहुत जटिल होगा।
अपराधी सरल हो सकता है। क्योंकि अपराधी ने कुछ दबाया नहीं है। अपराधी बुरा है, दुर्जन है, लेकिन सरल है। साधु सज्जन है, किसी की बुराई नहीं करता, लेकिन बड़ा कांप्लेक्स और बड़ा जटिल है। उसकी सरलता तो ऊपर
थोपी हुई है। और भीतर ठीक विपरीत, भीतर ठीक उससे उलटा आदमी छिपा है। इसलिए उसका प्रत्येक कृत्य दोहरा है। और जहां दोहराव है वहीं जटिलता खड़ी हो जाती है। साधु चालाक है। सीधे-सादे आदमी को तो साधु