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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ वजीर पहुंचे और उन्होंने च्यांग्त्से को कहा कि हम निमंत्रण लाए हैं सम्राट का, प्रसन्न हो जाओ। तुम्हारे भाग्य कि प्रधानमंत्री बनाने को सम्राट राजी है। चलो राजधानी! __ च्यांग्त्से वैसे ही बैठा रहा अपनी बंसी हाथ में लिए। उसने कहा कि मैंने सुना है उसके चेहरे पर कोई भाव-परिवर्तन न हुआ, मछली के मारने का काम जारी रहा-उसने कहा, मैंने सुना है कि राजमहल में एक कछुआ है तीन हजार साल पुराना। और उस कछुए की पूजा की जाती है, और विशेष पर्वो पर उसे निकाला जाता है स्वर्ण के रथों में। और खुद सम्राट उसके चरणों में झुकता है। और वह सोने के पात्र में रखा गया है। और उसके ऊपर हीरे-जवाहरात जड़े हुए हैं। लेकिन मैं तुमसे यह पूछता हूं कि देखो, वह नदी के किनारे पर एक कछुआ मिट्टी के गड्ढे में कीचड़ में अपनी पूंछ हिला रहा है। अगर तुम इस कछुए से कहो कि तू राजमहल का सोने की पेटी में बंद कछुआ होना चाहेगा या तू मिट्टी में अपनी पूंछ हिलाना ही पसंद करता है, तो यह कछुआ क्या कहेगा? वजीरों ने कहा कि साफ है कि कछुआ कहेगा कि मैं मिट्टी में ही अपनी पूंछ हिलाऊंगा। क्योंकि जीवित हूं। तो च्यांग्त्से ने कहा, यही मेरी भी खबर सम्राट से कह देना कि मैं भी मिट्टी में ही पूंछ हिलाना पसंद करता हूं। कम से कम जीवित हूं। ___ यह कथा है। तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लाओत्से कहता है कि शासक संत को होना चाहिए, और यह मौका सम्राट ने खुद दिया था च्यांग्त्से को, तो अपने गुरु का वचन मान कर उसे शासक हो जाना था। और एक मौका था कि वह दिखाता कि संत का शासन कैसे होता है। तो इसमें तो ऐसा लगता है कि च्यांग्त्से ने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया इनकार करके। सम्राट ही लाओत्से के ज्यादा अनुकूल मालूम पड़ता है बजाय च्यांग्त्से के। नहीं! च्यांग्त्से बिलकुल अनुकूल है। बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली बात, सम्राट प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, शासक नहीं। अगर सम्राट ने ठीक से लाओत्से को समझा होता तो वह कहता कि तुम हो जाओ सम्राट, मैं तुम्हारा सेवक। च्यांग्त्से सेवक ही रहता, शासक नहीं होने वाला था। प्रधानमंत्री नौकर है। आज लिया, कल अलग किया। कोई शासक होने वाला नहीं था। वह गुलाम ही रहता। सम्राट ही उसे चलाता। और जैसा सम्राट कहता वैसा उसे करना पड़ता। और कोई भी ज्ञानी पुरुष अज्ञानी पुरुष की आज्ञाएं मान कर चलने को राजी नहीं हो सकता; क्योंकि वह बात ही बेहूदी है। अगर सम्राट बनाने का आमंत्रण होता तो कथा दूसरी होती। निमंत्रण सम्राट होने का नहीं था। वह सम्राट समझ नहीं पाया। लाओत्से को पढ़ता होगा, समझ नहीं पाया। प्रधानमंत्री बनाने के लिए बुलाने की बात ही गलत थी। फिर दूसरी बात। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसके मन में शासक होने की इच्छा नहीं है। अब जरा हम गहरे जल में उतरते हैं। क्योंकि यह विरोधाभास हो गया। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसकी शासक की कोई इच्छा नहीं है, शासक होने की। दूसरों के ऊपर मालकियत करने की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं, वही संत है। अगर लाओत्से की बात ठीक है तो च्यांग्त्से ने इनकार करके ठीक किया। इससे उसने जाहिर किया कि उसके मन में शासक होने की कोई इच्छा नहीं है। और शासकों को वह मुर्दे समझता है, मरे हुए, चाहे वे सिंहासनों पर बैठे हों। उनसे बेहतर तो वह समझता है एक कछुए को जो कीचड़ में पूंछ हिला रहा है और मस्त है, जो अपने स्वभाव में जी रहा है और मस्त है। च्यांग्त्से ने खबर दी कि वह पहुंच चुका है संतत्व को; कोई आकांक्षा नहीं है। कोई दूसरा होता तो फेंक कर बंसी उठ कर खड़ा हो जाता कि जल्दी करो, कहां चलना है! शासक होने की कोई आकांक्षा नहीं है, यह संत का लक्षण है। सम्राट अगर सच में ही लाओत्से को समझता था, तो च्यांग्त्से को इतनी आसानी से छोड़ नहीं देना था। क्योंकि च्वांग्त्से ने तो सिर्फ खबर दी थी अपनी भाव-दशा 278
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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