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________________ मेरी बातें छत पर चढ़ कर को तो मैं तुम्हें स्क्रिप्ट बदलने को नहीं कहता कि तुम कथानक बदलो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम स्वीकार करो। स्वीकार मेरा सूत्र है। और लाओत्से की भी सारी जीवन-दृष्टि स्वीकार की है। और तुम चाहते हो, मेरी जीवन-दृष्टि तुम्हारी कैसे हो जाए। यही रास्ता है। मैंने सब स्वीकार कर लिया है। मैं जैसा हूं, मैंने स्वीकार कर लिया है। फिर कोई कमी न रही। फिर सब भराव-भराव हो गया। फिर कोई रिक्तता न रही, सब पूर्णता हो गई। मैंने अपने में जरा भी फर्क नहीं किया है। इस राज को तुम ठीक से समझ लो। मैंने इंच भर भी कुछ अपने में कभी बदला नहीं है। जैसा था, मैं उससे राजी रहा हूं। उसी राजीपन से सब कुछ हो गया है। अगर तुम मेरी जैसी जीवन-दृष्टि चाहते हो तो तुम्हें राजी होना पड़े। जो राजी है उसी को मैं आस्तिक कहता हूं। जो ना-राजी है उसी को मैं नास्तिक कहता हूं। ईश्वर को मानने न मानने का कोई सवाल आस्तिकता-नास्तिकता का नहीं है। आस्तिक वह है जो सारे जीवन को हां कह सकता है। और नास्तिक वह है जो कहता है-नहीं। नहीं में नास्तिकता है, हां में आस्तिकता है। आनिवरी सवालः लाओत्से कहते हैं कि संत ही किसी देश का शासन करने की योग्यता रखते हैं। लेकिन कथा है कि उनके ज्ञानी शिष्य च्यांग्त्से ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का चीनी सम्राट का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लाओत्से के वचन की दृष्टि से तो सम्राट का प्रस्ताव सही हैं और च्यांग्त्से की अस्वीकृति गलत मालूम होती है, जब कि सब संत च्यांग्त्से के कृत्य की सराहना करने से नहीं थकते। संत के वचन आँन कृत्य के इस विरोधाभास पर प्रकाश डालें। कथा है कि लाओत्से का शिष्य च्यांग्त्से नदी के किनारे बैठा मछली मार रहा था। उसके ज्ञान की खबर लोक-लोकांतर में पहुंच गई थी। सम्राट ने अपने वजीर भेजे कि वे च्यांग्त्से को पकड़ लाएं; जहां भी हो, खोज लाएं; उसे प्रधानमंत्री बनाना है। सम्राट निश्चित लाओत्से के वचन पढ़ता रहा होगा। और संत शासक हो, यह बात उसे जंची होगी। अन्यथा च्वांग्त्से की कौन तलाश करता? लाओत्से तो चल बसा था इस संसार से, च्यांग्त्से मौजूद था। और ठीक उसी हैसियत का आदमी था। इंच भर फर्क नहीं। च्यांग्त्से यानी लाओत्से। ठीक वही भाव-दशा थी। . वजीर खोजते हुए आए। पहले तो बड़ी मुश्किल पता लगाने की हुई कि च्यांग्त्से कहां है। क्योंकि च्यांग्त्से तो आवारा फकीर था। आज इस गांव, कल दूसरे गांव। क्योंकि लाओत्से ने उससे कहा था, ज्यादा देर एक जगह मत रुकना। क्योंकि लोग जब जान लेते हैं, प्रसिद्धि फैल जाती है। लोग जब मानने लगते हैं कि तुम कुछ बहुत विशिष्ट हो, उसके पहले वहां से हट जाना। जहां लोग तुम्हें न जानते हों वहीं रहना। क्योंकि वहीं तुम साधारण रह सकोगे। तो वह एक गांव से दूसरे गांव चलता रहता था। बामुश्किल तो वजीर पता लगा पाए। फिर उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि च्यांग्त्से जैसा आदमी और मछली मारता मिलेगा। लाओत्से के शिष्य बड़े अनूठे हैं, बड़े असाधारण। क्योंकि उन्होंने एक बड़ी अदभुत कला सीखी है, वह है साधारण होने की कला। वे साधारण आदमी से भिन्न कुछ भी नहीं करते। फिर साधारण आदमी मछली मारता तो च्वांग्त्से भी मछली मारता। कहीं अपने को विशिष्ट करके खड़ा नहीं करता। और यह बड़ी गहरी बात है। कभी भी यह नहीं कहता कि यह बुरा है, वह भला है। जैसा साधारण आदमी जीता है, वैसा जीता है। साधारणता ही उसकी साधना है। 277
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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