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________________ मेरी बातें छत पर चढ़ कर कहो 275 इसलिए करुणा की महिमा अपार है। उसमें क्रोध का गुण है उतना जितना कि दूसरे से संबंध है और उसमें का गुण है उतना जितना कि दूसरे को शुभ हो, मंगल हो, ऐसी भावना का संबंध है। करुणा - क्रोध और अक्रोध के मध्य में है। करुणा बड़ा गहरा संतुलन है। करुणा में मोह जैसा भाव है, क्योंकि दूसरे का हित हो जाए । लेकिन करुणा मोह जैसी नहीं है, क्योंकि दूसरे का हित हो ही जाए ऐसा आग्रह नहीं है। हो जाए, ऐसी भावना है। हो ही जाए, ऐसा आग्रह नहीं है। अगर हो जाए तो ठीक, अगर न हो तो कोई पीड़ा न होगी। एक उदासीनता भी है, एक रस भी है। करुणा दोनों के मध्य में है। तो ध्यान अगर गहरा होता जाए तो तुम उदासीन हो जाओगे; फिर करुणा पैदा करना मुश्किल हो जाएगा। ध्यान के साथ-साथ करुणा को जगाए चलो। ताकि आखिरी घड़ी में तुम्हारा अनुभव सिर्फ तुम्हारा न हो, आखिरी घड़ी में तुम्हारे आनंद का उत्सव तुम्हारा ही न हो, और भी उसमें भागीदार हो सकें, दूसरे लोग भी साझीदार हो सकें। इसलिए शुरू करो। और कहता हूं मैं भी तुमसे, घरों के छप्परों पर चढ़ कर, क्योंकि लोग बहरे हैं, तुम जब बहुत जोर से चिल्लाओगे तभी शायद वे सुनें। उनकी नींद हिलानी पड़ेगी। वे नाराज भी होंगे, क्योंकि किसी की भी नींद तोड़ो तो स्वाभाविक है नाराजगी । तो तुम उससे उनकी नाराजगी से, उनकी अवहेलना से, उनकी उपेक्षा से- निराश मत हो जाना, हताश मत हो जाना। तुम कहे ही चले जाना। तो तुम हजार को कहोगे तो शायद दस सुन सकेंगे। दस सुनेंगे तो शायद एक चल सकेगा। इसलिए तुम बीज जितने दूर-दूर तक फेंको, फेंकना। क्योंकि हजार बीज फेंकोगे तो शायद एक बीज फल तक पहुंच सकेगा। और यह मत सोचो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब यह कर सकोगे। तब तुम न कर सकोगे। और यह भी याद रखो हर वक्त कि जब तुम दूसरे से कह रहे हो तब उस कहने में इतने मत भूल जाना कि तुम्हारा ध्यान, तुम्हारा आत्म-भाव, तुम्हारी आत्म-स्मृति खो जाए। दूसरे की सहायता करना स्वयं को खोए बिना । अगर ऐसा लगे कि दूसरे की सहायता करने में स्वयं अनिवार्यतः खोता है तो फिर दूसरे की फिकर छोड़ देना । क्योंकि अंतिम बात, महत्वपूर्ण बात, आखिरी चुनने की बात तो तुम्हारे जीवन का ज्योतिर्मय हो जाना है। अगर लगे हाथ, किसी दूसरे पर भी रोशनी पड़ जाए तो ठीक, लेकिन उसे लक्ष्य मत बना लेना । साथ-साथ, चौथा प्रश्न : कितने वर्षों से मन एक होने की बात सीखता है, पर वह एक देखता नहीं। अच्छी लगती है ज्ञान की बातें, पर मन करने को राजी नहीं होता। इतने वर्ष चले गए सुनने में, पर परिवर्तन नहीं आता । वही द्वेष और अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। हमें भी यह दृष्टि दें जैसा आप देखते हैं, जिससे आप देखते हैं। अड़चन परिवर्तन की आकांक्षा में है। क्या जरूरत है परिवर्तन की ? द्वेष है तो है। उस पर इतना ध्यान क्यों दे रहे हैं? उससे लड़ने की जरूरत क्या है? माना कि गुलाब के पौधे में कांटे हैं। पर उन कांटों पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है? फूल का ध्यान करें। और कांटे भी फूल की रक्षा के लिए हैं, कोई दुश्मन नहीं हैं। शुभ का फूल खिलाएं; अशुभ के कांटों की बहुत चिंता न करें। हैं तो हैं। राजी हो जाएं। तो परिवर्तन आएगा। परिवर्तन चाहने से कभी परिवर्तन नहीं आता । परिवर्तन की चाह ही छोड़ दें। वह शिकायत शुभ नहीं, शोभा नहीं देती । प्रार्थना का भाव रखें, परिवर्तन का नहीं। परिवर्तन भी तो स्वयं को सजाने की ही आकांक्षा है— कि द्वेष न हो, कि क्रोध न हो, कि घृणा न हो। चरित्र हो चमकता हुआ, ज्योतिर्मय चरित्र हो । करुणा हो, अहिंसा हो, वीतरागता हो। यह आभूषणों की चाह भी क्यों ? यह भी तो सजावट है। यह भी तो श्रृंगार की ही आकांक्षा है। यही चाह बाधा है। परिवर्तन की चाह ही परिवर्तन में बाधा है। मत चाहें।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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