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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 274 खूंटियां टूट जाएं। तो थोड़ी देर नाव को अटकाने का मौका रहेगा। नहीं तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा, तुम कब नाव में सवार हो गए, कब नाव की यात्रा शुरू हो गई, कब तुम दूसरे तट पर पहुंच गए। और एक बार नाव छूट जाए, तो तुमने जो पाया है वह तुम्हारे लिए महा आनंद होगा, लेकिन तुम उसे बांट न पाओगे। बांटो ! अधूरे हो, अभी पूरा हुआ नहीं है, पर बांटना जारी रखो, ताकि बांटने का अभ्यास बना रहे। और जब तुम पूरे हो जाओ तब भी बांटने की क्रिया थोड़ी देर चल जाए। थोड़ी देर ही सही ! लेकिन बहुत लोग प्यासे हैं। एक बूंद भी उनके कंठ में पड़ जाए तो महाशुभ है, महामंगलदायी है। मन में यह भाव उठता है कि अभी मैं पूरा नहीं हुआ, कैसे कहूं ! इस भाव को याद रखो। नहीं तो खतरा है। इसको भी भूलो मत कि मुझे पूरा होना है। कहीं ऐसा न हो कि करुणा महाफंदा बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि अभी तुम्हें तो हुआ नहीं और तुम लोगों को समझाने में ही निरंतर रत हो जाओ। तब जो हुआ है वह भी खो जाएगा। तब तो तुम एक दिन पाओगे कि प्रज्ञा तो नहीं जगी, तुम एक पंडित होकर रह गए हो । तो बड़ा बारीक रास्ता है। बड़ा सम्हल कर चलना है। करुणा को बोना है, ताकि अंतिम क्षण में तुम ऐसे ही न लीन हो जाओ बिना कुछ दिए। इस जगत ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। इस जगत को वापस कुछ दे जाना जरूरी है। इस जगत में तुम बहुत दिन रहे हो। इस घर में बहुत दिन बसे हो। इसे आखिरी अनुग्रह के रूप में कुछ दे जाना जरूरी है। तुम ऐसे ही चुपचाप चोरी-छिपे विदा मत हो जाना। जहां इतने दिन रहे हो, जहां तुमने बहुत से दुष्कृत्यों की छापें छोड़ी हैं, जहां तुम्हारे बहुत से सुकृत्यों की भी छापें हैं, वहां तुम्हारे उस कृत्य की छाप भी छोड़ जाना जो न तो शुभ की है और न अशुभ की है, जो पारमार्थिक है, जो आत्यंतिक है। तुम एक झलक उसकी भी छोड़ जाना। इसलिए करुणा को साधना जरूरी है। और बताओ लोगों को, कहो । जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, खड़े हो जाओ मकानों के छप्परों पर और चिल्ला कर कहो, क्योंकि लोग बहरे हैं। तुम जब बहुत चिल्ला कर कहोगे तभी शायद उनकी नींद में कोई खबर पहुंच पाए। कहो! लेकिन होश बनाए रखना कि यह कहना ही सब कुछ नहीं है। नहीं तो तुम्हारी प्रज्ञा खो जाए और तुम कहने में ही लीन हो जाओ; तब तुम एक पंडित हो जाओगे, एक उपदेशक, लेकिन ज्ञानी नहीं। इसलिए बारीक और नाजुक है रास्ता । होश रखना है कि मेरी प्रज्ञा बढ़ती रहे, और होश रखना है कि मेरी करुणा भी साथ-साथ आरोपित होती रहे। ध्यान और करुणा दोनों साथ-साथ बढ़ें; एक उनमें संतुलन बना रहे। यह तुमने अभी से शुरू किया तो ही हो पाएगा। जरा भी देर हो जाने के बाद. । क्योंकि हर चीज का मौसम है । और हर चीज का वक्त है, जब बीज बोए जा सकते हैं। वक्त के गुजर जाने पर फिर बीज नहीं बोए जा सकते। अगर तुम ध्यान में बहुत गहरे चले गए तो फिर बीज न बो सकोगे करुणा के। क्योंकि ध्यान का अर्थ है अपने में डूबना, और करुणा का अर्थ है दूसरे में थोड़ा रस कायम रखना। ध्यान का आखिरी अर्थ है कि दूसरा बचे ही न, तुम्हीं बचे; कोई न रहा, सब खो गया, तुम्हारा होना ही बचा । तो ध्यान अगर बहुत गहन हो जाए तो करुणा का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि कोई दूसरा बचा ही नहीं। दूसरे का चिंतन भी नहीं उठता; विचार की आखिरी लकीर भी खो जाती है। इसके पहले कि दूसरा बिलकुल खो जाए, तुम दूसरे से थोड़े से सेतु बना रखना। वे सेतु माया के न हों। क्योंकि अगर वे माया के हों, मोह के हों, क्रोध के हों, मैत्री के, शत्रुता के हों, तो फिर तुम भीतर न जा सकोगे। सिर्फ एक ही संबंध है करुणा का जो तुम्हारे भीतर जाने में बाधा न बनेगा। इसलिए उसको हम आखिरी बंधन कहते हैं और स्वर्ण का बंधन कहते हैं। करुणा का एकमात्र सेतु है जो तुम्हें दूसरे से भी जोड़े रखेगा और अपने से तोड़ने का कारण नहीं बनेगा ।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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