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मेरी बातें छत पर चढ़ कर कठो
लेकिन फिर भी तुम भरे रहोगे, खाली न हो पाए। कल तक तुम दूसरों का अहित करने के लिए चिंतन करते थे और सो न पाते थे; अब तुम दूसरों का हित करने का सोचोगे और सो न पाओगे। आखिरी अर्थों में तो यह भी उपद्रव है।
इसलिए जैन कहते हैं, तीर्थंकर भी बंधन है, और किसी कर्म का फल है; इसे भी भोगना पड़ेगा।
बड़ा सूक्ष्म विवेचन हुआ है इस पृथ्वी के टुकड़े पर और लोग इतनी गहराई में गए हैं कि दुनिया के शेष सारे धर्म बहुत बचकाने मालूम होते हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि तीर्थंकरत्व भी एक कर्म का फल है, और इससे भी छुटकारा पाना है। वह बुराई है। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन उसे खयाल में रखना। और उससे पार जाना है। तुम्हें शुभ और अशुभ दोनों के पार जाना है।
और अगर तुम मेरी मौजूदगी का इतना उपयोग कर सको कि शुभ और अशुभ को कम से कम मेरे तरफ छोड़ दो, कम से कम एक आदमी तुम्हारी जिंदगी में ऐसा आ जाए जो न बुरा है और न भला, तो भी बहुत बड़ी घटना घट गई। क्योंकि और तरह के लोग तो तुम्हारी जिंदगी में आएंगे ही, जो भले हैं, बुरे हैं। उनका तुम्हें काफी अनुभव है। अच्छे लोगों का अनुभव है, सज्जन का; बुरे लोगों का अनुभव है, दुर्जन का। संत न तो सज्जन है और न दुर्जन। तुम्हारी जिंदगी में यह स्वाद भी आ जाने दो कि तुम एक ऐसे आदमी से भी जुड़े हो जो अच्छा है न बुरा है, जिसका होना न होने के बराबर है; जिसकी मौजूदगी एक तरह की अनुपस्थिति है; जिसके आकार के भीतर कुछ निराकार घटित हुआ है। जिसके जीवन से तुम्हें कुछ जीवन के पार का सूचन और किरण मिल रही है।
तीसरा प्रश्न : आप जो भी कहते हैं वह पूरा का पूरा इतना सत्य आँर फलदायी प्रतीत होता है कि वह सब का सब दूसरों को, पूरे जगत को बता देने का एक अतीव भाव घेर लेता है। परिणाम में आपकी बातें अनिवार्यक्रपेण मन इकट्ठा करता है, दूसनों तक बातों को कैसे पहुंचाया जाए, इसका भी निरंतर विचार चलता है। साथ ही साथ इसका भी अनुभव होता है कि जब तक मैं खुद कुछ न पा लूं तब तक मैं दूसरों को कसे कुछ कह सकता हूं। तो हम क्या करें?
__ उचित है। यही तो मैं अभी कह रहा था कि ध्यान को और करुणा को साथ-साथ बढ़ने दो। अगर ध्यान पूरा हो गया और तुमने पा लिया, और बीच में करुणा के आधार न रखे, तो तुम खो जाओगे। जिस दिन नाव तुम्हारी तैयार होगी उस दिन तुम चले जाओगे। इसलिए यह प्रतीक्षा मत करो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब तुम कुछ कहोगे। क्योंकि तब तुम कह ही न पाओगे। तुम पूरे नहीं हुए हो, तभी तुम करुणा के बीज बोने लगो।
. यह जो भाव उठ रहा है निरंतर कि दूसरों को भी कहूं, यह करुणा का भाव है। क्योंकि दूसरों से कुछ लेना नहीं है, सिर्फ देना ही है। दूसरों को कुछ मिल जाए जो तुम्हें मिल रहा है, यह बड़ी प्रेम की भाव-भीनी दशा है। इसे बुरा मत समझो।
ध्यान रखो कि अगर अभी तुमने कहने का अभ्यास जारी रखा तो ही अंतिम घड़ी में, जब आखिरी कड़ी बचेगी, तब भी तुम थोड़ी देर कुछ कह पाओगे। नहीं तो तुम न कह पाओगे। बहुत से ज्ञानी ऐसे ही शून्य में खो जाते हैं; उनके महान अनुभव का कोई लाभ जगत को नहीं हो पाता। वे तैयारी ही नहीं कर पाते। सिर्फ ध्यान में जो लीन है, वह एक दिन पूरा हो जाएगा। उस तक तो बात पूरी हो गई, लेकिन उससे अंधेरे में भटकते लोगों को कुछ भी न मिल पाएगा। इसलिए करुणा को साथ-साथ साधो।
दूसरी बात भी ठीक है कि मन में यह लगेगा कि अभी मेरा तो कुछ पूरा हुआ नहीं, मैं कैसे कहूं!
अधूरे हो, तभी तक कहने का अभ्यास कर लो। पूरे हो जाने के बाद अभ्यास का मौका नहीं मिलता; आदमी खो जाता है, गहन सन्नाटे में डूब जाता है, वाणी नहीं निकलती। सोने की खूटी तैयार कर लो, इसके पहले कि सब
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