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मेरी बातें छत पर चढ़ कर कठो
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बुरे से बुरे आदमी में भी एक तो हीरा होता ही है। अगर वह हीरा न हो तो उसकी मनुष्यता ही खो गई। उतना बुरा कोई कभी नहीं है। अंधेरे से अंधेरे में भी प्रकाश की किरण मौजूद होती है। कितना ही गहन अंधकार हो, वह भी प्रकाश का ही एक अभाव है, वह भी प्रकाश का ही एक रूप है। अगर तुम देख सको तो तुम्हें बुरे से बुरे आदमी में भी वह किरण दिखाई पड़ जाएगी। लेकिन उसके लिए बड़ी सधी आंखें चाहिए।
और वही भले से भले आदमी के जीवन में है। उसके जीवन में भी एक बुराई होगी। लेकिन तुम उसे पहचान न पाओगे। इतनी भलाई के बीच, जहां चारों तरफ मिठास हो वहां नमक की एक डली अगर तुम डाल भी दो तो खो जाती है; वह भी मिठास बन जाती है, उसका पता नहीं चलता। लेकिन इस पृथ्वी पर होने का अर्थ ही यह है शुद्धि पूर्ण नहीं हो सकती।
इसलिए हम समाधि की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं, या निर्वाण की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं । बुद्ध को ज्ञान हुआ चालीस वर्ष की उम्र में, उसे हम कहते हैं निर्वाण । फिर बुद्ध अस्सी वर्ष में शरीर को छोड़े, उसे हम कहते हैं। महापरिनिर्वाण। वह निर्वाण था, लेकिन उसमें एक प्रतिशत अशुद्धि थी। सोना था, लेकिन ठीक चौबीस कैरेट नहीं । जरा सी भी अशुद्धि तो चाहिए, नहीं तो सोने का कोई गहना न बन सकेगा। उसमें थोड़ा तांबा, कुछ और मिला होना चाहिए। चौबीस कैरेट सोने का कोई गहना नहीं बनता। क्योंकि गहना थोड़ी सी सख्ती चाहता है। चौबीस कैरेट सोना इतना कोमल हो जाता है कि उसका कुछ बन नहीं सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना पारदर्शी हो जाता है कि दिखाई नहीं पड़ सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना अदृश्य हो जाता है, इतना अरूप हो जाता है कि फिर तुम्हें उसकी छाया भी बनती हुई दिखाई नहीं पड़ सकती। चौबीस कैरेट बुद्धत्व का अर्थ हुआ कि बुद्ध अब शरीर में नहीं रह सकते। शरीर अशुद्धि है । और चेतना जब तक शरीर में है तब तक थोड़ी सी अशुद्धि रहेगी।
वह अशुद्धि क्या है ? जैनों और बौद्धों ने इस पर बड़ा गहन विचार किया है। जैनों ने तो इस संबंध में बड़ी गहन खोज की है। क्योंकि यह सवाल उनके सामने रहा है कि तीर्थंकर क्यों शरीर में हैं? तो उन्होंने तीर्थंकर-बंध की खोज की है। वे कहते हैं, तीर्थंकर का भी एक बंधन है। तो तीर्थंकरत्व भी आखिरी जंजीर है। इसलिए वे कहते हैं, तभी कोई व्यक्ति तीर्थंकर होता है जब उसने पिछले जन्मों में कोई कर्मबंध किया हो तीर्थंकर होने का। वह भी आखिरी पाप है। हमें तो तीर्थंकर एकदम पुण्य मालूम होता है। लेकिन तीर्थंकर स्वयं जानता है कि अभी एक कड़ी बाकी है; अन्यथा वह खो जाएगा। वह कड़ी क्या है ?
जैन कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। बौद्ध भी कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। हमें तो क्रोध बुरा लगता है; करुणा से शुभ और क्या ? लेकिन बुद्ध को, महावीर को करुणा भी बुरी लगती है। क्योंकि वह भी है तो क्रोध का ही रूपांतरण। क्रोध में हम दूसरे को नष्ट करना चाहते हैं, करुणा में हम दूसरे को फला-फूला देखना चाहते हैं । लेकिन नजर तो दूसरे पर ही है। क्रोध और करुणा दोनों ही दूसरे की तरफ बहते हैं । एक विध्वंसात्मक, एक सृजनात्मक; लेकिन ऊर्जा तो वही है। करुणा की खूंटी से बुद्ध बंधे हैं। उतनी अशुद्धि है।
अगर मैं तुम्हें चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाए, रूपांतरण हो जाए, यह करुणा ही वह एक प्रतिशत अशुद्धि है। नहीं तो तुम्हारे लिए मैं क्यों परेशान होऊं ? क्या प्रयोजन है? एक खूंटी उखाड़ी जा सकती है, नाव दूसरे किनारे पर यात्रा पर निकल जाएगी। माना कि खूंटी सोने की है, लेकिन खूंटी खूंटी है— सोने की हो कि लोहे की हो। माना कि जंजीर हीरे-जवाहरातों से जड़ी है, लेकिन जंजीर जंजीर है— जंग खाई लोहे की हो कि · हीरे-जवाहरातों से चमकती हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतिशत अशुद्धि करुणा है ।
बुरे से बुरे आदमी में एक प्रतिशत शुद्धि बोध है। क्योंकि बुरे से बुरे आदमी को यह बोध तो होता ही रहता है। कि मैं बुरा कर रहा हूं। यह बोध कभी नहीं जाता। यह एक किरण उस गहन अंधकार में भी बनी रहती है। चोरी कर