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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ होने की दौड़ को समझ लो कि होने की दौड़ ही भ्रांत है। तुम जो भी हो सकते हो वह तुम हो। जब तक दौड़ोगे तब तक चूकोगे। जब तक खोजोगे तब तक खोओगे। जिस दिन खोज भी छोड़ दोगे, दौड़ भी छोड़ दोगे, बैठ जाओगे शांत होकर कि न कहीं जाना है, यही जगह मंजिल है; न कुछ होना है, यही होना आखिरी है; उसी क्षण क्रांति घटित हो जाती। तुम्हारे करने से क्रांति घटित नहीं होती। तुम्हारे किए तो जो भी होगा उपद्रव ही होगा, क्रांति नहीं होगी। जब तुम्हारा करने का भाव ही खो जाता है, तत्क्षण क्रांति हो जाती है। क्रांति आती है, अवतरित होती है तुम पर। तुम जिस दिन कुछ भी न करने की अवस्था में होते हो उसी क्षण तालमेल बैठ जाता है, उसी क्षण सब सुर सध जाते हैं। उसी क्षण तुम और विराट के बीच जो विरोध था वह खो जाता है। विरोध क्या है? विरोध यह है कि परमात्मा तुम्हें कुछ बनाया है, तुम कुछ और बनने की कोशिश में लगे हो। गुरजिएफ का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है। बहुत मुश्किल है समझना, लेकिन मेरी बात समझते हो तो समझ में आ जाएगा। गुरजिएफ कहता है कि सभी साधक, सभी महात्मा परमात्मा से लड़ रहे हैं। परमात्मा ने तो तुम्हें यह बनाया है जो तुम हो। अब तुम परमात्मा पर भी सुधार करने की कोशिश में लगे हो। इसलिए गुरजिएफ कहता है, सभी धर्म परमात्मा के खिलाफ हैं। समझना बहुत मुश्किल होगा। बात बिलकुल ठीक कह रहा है। परमात्मा के जो पक्ष में है उसका क्या धर्म? जब साधने को कुछ न बचा तो धर्म कहीं बचेगा? न वह साधता है, न वह दौड़ता है, न वह मांगता है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं। इसलिए तो कबीर कहते हैं : साधो सहज समाधि भली। सहज समाधि का यह अर्थ है जो मैं कह रहा हूं: कुछ न किए सध जाए वही सहज समाधि। तुम्हारे करने से जो सधे वह तो असहज होगी; वह सहज नहीं होगी। वह चेष्टित होगी। और जो चेष्टा से होगी वह तुमसे बड़ी नहीं होगी। तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी कैसे हो सकेगी, थोड़ा सोचो! तुम ही जो करोगे वह तुम्हें तुमसे ऊपर कैसे ले जा सकेगा, जरा विचारो! यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जूते के बंद पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश में लगा हो। सभी साधक यही कर रहे हैं। छोड़ो यह नासमझी। साधक कभी नहीं पहुंचता। साधक पहुंच ही नहीं सकता, सिद्ध ही पहुंचता है। और सिद्ध का अर्थ साध-साध कर नहीं सधता। सिद्ध तुम हो। तुम्हें जो भी मिल सकता है मिला ही हुआ है; जरा सी पहचान की कमी है। जिस खजाने की तुम तलाश कर रहे हो वह छिपा ही हुआ है; जरा पर्दे का उठाना है। दिल के आईने में है तस्वीर-यार जब जरा गर्दन झुकाई देख ली थोड़ी सी गर्दन झुकने की बात है। वह गर्दन झुकना ही अहंकार का झुकना है। और जब तक तुम करोगे तब तक गर्दन अकड़ी रहेगी। कर्ता का भाव गर्दन का न झुकना है। अकर्ता का भाव कि मेरे किए क्या होगा। मैं हूं कौन? मेरी सामर्थ्य क्या? असहाय हूं। न कोई सामर्थ्य है, न कुछ कर सकता हूं। श्वास चलती है तो चलती है, नहीं चलेगी तो क्या करोगे? सूरज निकलता है तो निकलता है, नहीं निकलेगा तो क्या करोगे? जीवन है तो है, नहीं हो जाएगा तो क्या करोगे? तुम्हारा बस कितना है? और तुम मोक्ष खोजने चले हो! और तुम परमात्मा की तलाश कर रहे हो! और तुम अमृत-पथ के यात्री बनने की आकांक्षा रखे हो! तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है? जैसे ही कोई अपनी सामर्थ्य को समझता है, अर्थात अपनी असामर्थ्य को पहचान लेता है, जैसे ही कोई अपनी शक्ति को पहचानता है, वैसे ही अपनी अशक्ति की परिपूर्णता पता चल जाती है। उसी क्षण तुम ठहर जाते हो, दौड़ना रुक जाता है। तुम बैठ जाते हो, खड़े होना विदा हो जाता है। तुम झुक जाते हो, अकड़ खो जाती है। उसी झुकाव में जब जरा गर्दन झुकाई-वह घड़ी आ जाती है जिसको तुम खोज-खोज कर न खोज सके। जिसे तुम खोज रहे थे 266
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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