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तुम्हारे जीवन में कभी फूल लगते ही नहीं; संगीत कभी लगता ही नहीं; कभी तुम नाचने की घड़ी में आ ही नहीं पाते। तुम कभी मदमस्त नहीं हो पाते, जब कि पूरी मधुशाला खुली है अस्तित्व की, कि तुम पी लो पूरी मधुशाला।
ताओ उपनिषद भाग ५
मतवारी, मदवा पी गई बिनतोला, कि तुम पी लो पूरी मधुशाला।
कबीर कहते हैं कि मैं तो
कबीर कहते हैं कि मैं तो अब बिना तौले सारी मधुशाला ही को पी गया। तौलना भी क्या? अनंत उपलब्ध है। तौल कर भी क्या करोगे? बिना तौले पी जाओ।
लेकिन नहीं पी पाओगे। क्योंकि तुम जरूरत को तो काट रहे हो और गैर-जरूरत को सिर पर रखे ढो रहे हो। हम अपनी जरूरतों को महत्वाकांक्षा के लिए काटते चले जाते हैं। हम कहते हैं, कल महत्वाकांक्षा पूरी हो जाएगी तब सब ठीक हो जाएगा। तुमने एक दुकानदार को भोजन करते देखा है? भागा-भागा भोजन करता है। उसकी हालत देखो तुम, भागा-भागा किसी तरह भोजन कर रहा है। दुकान पर पहुंच ही चुका है असली में; शरीर ही यहां है, आत्मा तो दुकान पर है। स्वाद का रहस्य इसे पता ही न चल पाएगा।
हिंदुओं ने अन्न को ब्रह्म कहा है। जिन्होंने अन्न को ब्रह्म कहा है उन्होंने जरूर स्वाद लिया होगा। उन्होंने तुम जैसे ही भोजन न किया होगा। वे बड़े होशियार लोग रहे होंगे, बड़े कुशल रहे होंगे। कोई गहरी कला उन्हें आती थी । कि रोटी में उन्होंने ब्रह्म को देख लिया। दुनिया में किसी ने भी नहीं कहा है अन्नं ब्रह्म। कैसे लोग थे। रोटी में ब्रह्म! जरूर उन्होंने रोटी कुछ और ढंग से खाई होगी। उन्होंने भोजन को ध्यान बना लिया होगा। वे भागे-भागे नहीं थे। वे जब भोजन कर रहे थे तो भोजन ही कर रहे थे। उनकी पूरी प्राण-ऊर्जा भोजन में लीन थी। और तब जरूर रूखी रोटी में भी वह रस है जिसको ब्रह्म कहा है। तुम्हें भोजन करना आना चाहिए।
इसलिए मैं कहता हूं कि जब अन्न में ब्रह्म है तो निद्रा में भी है। उसे लेना आना चाहिए। तुम अगर ठीक से सोना जान जाओ, जहां सपने खो जाएं। क्योंकि सपने का अर्थ है, तुम्हें सोना नहीं आता। तुम आधे-आधे सो रहे हो। सपने का अर्थ है, कुछ जागे हो, कुछ सोए हो। इसीलिए तो बेचैनी है। जब सपना रहित नींद हो जाती है तब नींद में भी ब्रह्म है। तब तुम पाओगे कि श्वास-श्वास में उसी का वास है। तब तुम पाओगे, वही श्वास से भीतर आता, वही श्वास से बाहर जाता। तब हर तरफ तुम्हें उसकी ही झलक मिलेगी।
घट-घट मेरा साईयां, सब सांसों की सांस में। __ कोई परमात्मा दूर नहीं है; तुम जरा पास आ जाओ अपने। तुम बहुत दूर भागे हुए फिर रहे हो। इसको लाओत्से कहता है कि जैसे ही कोई मिताचार को उपलब्ध होता, पूर्व-निवारण करता, तैयार हो जाता, सुदृढ़ हो जाता, सदाजयी हो जाता। उसकी विजय शाश्वत है। फिर उसे कोई हरा नहीं सकता। उसने ब्रह्म को पा लिया, अब उसकी कोई हार संभव नहीं है।
हार तो वहां होती है-तुमने कोई ऐसी चीज पा ली जो संसार की है, तो तुम हारोगे; क्योंकि वह तुमसे छीनी जाएगी। आज नहीं कल तुम उसे खोओगे। कुछ ऐसी चीज खोज लो जिसे चोर चुरा न पाएं, जिसे आग जलाए नहीं, जिसे मृत्यु छीन न सके। फिर तुम सदाजयी हो। ___ 'सदाजयी होना अशेष क्षमता प्राप्त करना है।'
और जो सदाजयी हो जाता है, ऐसे सदायियों को हमने जिन कहा है, महावीर कहा है। जीत लिया जिन्होंने। क्या जीत लिया उन्होंने? स्वयं को जीत लिया।
दो तरह की जय है। एक तो दूसरों को जीतना। उसे मैं राजनीति कहता हूं। लाओत्से भी राजनीति कहता है। और एक स्वयं को जीतना। उसे धर्म कहते हैं। जब तक तुम दूसरों को जीतने में लगे हो तब तक तुम विक्षिप्त ही रहोगे। जिस दिन तुम अपने को जीतने में लगोगे उसी दिन तुम यात्रा पर, ठीक यात्रा शुरू हुई, यात्रा-पथ पर आए।
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