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________________ बियमों का बियम प्रेम व स्वतंत्रता है का अर्थ। बूढ़े तो तुम हो, यह पहले से ही हम समझ गए थे, क्योंकि आदमी से पुराने हो। सम्राट भी तुम हो, क्योंकि सारे आदमी तुम्हारी ही प्रार्थना कर रहे हैं और तुम जो दे सकते हो वही मांग रहे हैं, यह भी हम समझते थे। लेकिन मूर्ख हो, यह हम पहली दफा समझे। शैतान ने पूछा, क्या मतलब? तो उसने कहा, यहां कारागृह में, जहां मेरे हाथ में हथकड़ियां बंधी हैं, जहां मैं भला तो कर ही नहीं सकता, वहां तुम मेरे पास बैठे क्या कर रहे हो? यहां तो कुछ करने का उपाय ही नहीं है। कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है तुम्हारे सिवाय; तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो? यहां तो प्रार्थना भी नहीं कर सकता हूं। शुभ का तो कोई उपाय ही नहीं है। इसलिए समझ गया कि तुम महामूढ़ हो। कहावत ठीक है। तुम अकारण यहां बैठे हो, क्योंकि यहां तो तुम्हारे राज्य में बिलकुल बंधा हूं। इसके बाहर जाने का कोई उपाय ही नहीं है। इसकी दीवारें बड़ी हैं; हाथ में जंजीरें पड़ी हैं। जब मैं झुसिया की आत्मकथा पढ़ रहा था तब मुझे लगा कि जंजीरों में तुम्हारे पास तुम जिसे पाओगे वह परमात्मा नहीं हो सकता, वह शैतान ही होगा। क्योंकि परमात्मा की संभावना ही स्वतंत्रता में है। इसीलिए तो हम परमात्मा को मोक्ष कहते हैं। और हमने ऐसे लोग भी पैदा किए इस मुल्क में जिन्होंने परमात्मा की भी फिक्र नहीं की, मोक्ष की ही फिक्र की। क्योंकि उन्होंने कहा, जहां मोक्ष मिल गया, परमात्मा मिल ही गया। महावीर परमात्मा की बात नहीं करते। बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते। वे कहते हैं, मुक्ति काफी है। जिस दिन तुम परम स्वतंत्र हो गए उस दिन परमात्मा मिल ही गया। उसकी बात क्या करनी है! परम स्वतंत्रता में तुम्हारे जो साथ है वह परमात्मा हो जाता है। और परम परतंत्रता में तुम्हारे साथ जो रह जाता है वह केवल शैतान है। तुम जिसको गुलाम बनाते हो उसको शैतान बनाते हो। और तुम जिसके मालिक बनते हो, तुम मालिक बनने में भी शैतान बनते हो। क्योंकि गुलामी में सिर्फ शैतानी का ही फूल खिल सकता है। गुलामी की भूमि में शैतानी के अतिरिक्त और कोई पौधा नहीं पनप सकता। मिताचार का अर्थ है, नियम को कम करते जाओ-यह पहला आयाम-और धीरे-धीरे हार्दिकता को बढ़ाते जाओ। एक ऐसी घड़ी आ जाए कि कोई नियम न रह जाए, सिर्फ हृदय ही नियम हो। और ध्यान रखना, एक को जो साध लेता है अनेक सध जाते हैं। और जो अनेक को साधने में लगता है वह एक से भी वंचित रह जाता है। वह एक है प्रेम। अनेक नियमों को साधने की जरूरत नहीं है। प्रेम मिताचार है। दूसरा आयाम है मिताचार काः कि तुम्हारे जीवन में न्यून से राजी होने की क्षमता बढ़नी चाहिए। ज्यादा की मांग अंततः विक्षिप्तता लाती है। तुम्हें न्यून से संजी होना चाहिए। तुम जितने न्यून से राजी हो जाओगे उतने ही तुम विराट होने लगोगे। और यह न्यून से राजी होना सभी दिशाओं में लागू है। चाहे धन हो, चाहे पद हो, चाहे यश हो, चाहे त्याग हो, चाहे व्रत हो, न्यून से राजी हो जाना। यहां थोड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर कोई आदमी धन इकट्ठा करता चला जाता है तो हम कहते हैं यह पागल है। हमारे सब साधु-संन्यासी कहते हैं, यह पागल है। और-और-और की मांग किए चला जा रहा है। रुको! यह दौड़ का कहां अंत होगा? हमें भी दिखता है। लेकिन त्यागी? वह भी और की मांग किए चला जाता है। वह हमें नहीं दिखाई पड़ता। पिछले साल उसने बीस दिन का उपवास किया था, इस साल वह पच्चीस दिन का करने वाला है। अगले साल वह तीस दिन का करेगा। यह भी और की मांग है। बीस लाख रुपये थे, पच्चीस लाख रुपये चाहिए। बीस दिन का उपवास कर सकते थे, अब पच्चीस दिन का कर सकते हैं, तीस की आकांक्षा है। फर्क क्या है? अनुपात वही है। बीस की जगह पच्चीस चाहिए, पच्चीस की जगह तीस चाहिए। धन के ही सिक्के लोग इकट्ठे नहीं करते, त्याग के भी सिक्के इकट्ठे करते हैं। और दौड़ वही की वही जारी रहती है। 251
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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