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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ प्रेम सहारा देता है; तुम जो भी होने को बने हो वही होने में सहयोगी होता है। प्रेम तुम्हें काट-छांट कर अपनी मर्जी के अनुसार नहीं बनाना चाहता। क्योंकि मैं कौन हूं जो तुम्हें काटूं-छांटूं? मैं कौन हूं जो तुम्हें तुम्हारे रास्ते से च्युत करूं और कहीं और ले जाऊं? मैं कौन हूं जो तुम्हारा नियंता बनूं? प्रेम नियंता नहीं है। प्रेम की कोई मालकियत नहीं है। प्रेम तुम्हें स्वतंत्रता देता है वही होने की जो तुम होना चाहते हो। प्रेम तुम्हें खुला आकाश देता है। प्रेम तुम्हें छोटे से आंगन में बंद नहीं करता। और प्रेमी प्रसन्न होता है, तुम जितने मुक्त आकाश में विचरण करते हो। तुम जितने दूर निकल जाते हो बादलों के पार उड़ते हुए कि प्रेमी को दिखाई भी नहीं पड़ता कि तुम कहां चले गए हो, उतना ही प्रसन्न होता है। क्योंकि तुम जितने स्वतंत्र हो उतनी ही तुम्हारी गरिमा प्रकट होगी। तुम जितने स्वतंत्र हो उतनी ही तुम्हारी आत्मा सुदृढ़ होगी। तुम जितने स्वतंत्र हो उतने ही तुम्हारे जीवन में प्रेम का झरना बढ़ेगा और बहेगा। परतंत्र व्यक्ति प्रेम नहीं दे सकता। इसलिए जब तक स्त्रियां परतंत्र हैं, मैं निरंतर कहूंगा, कहे जाऊंगा कि दुनिया में प्रेम नहीं हो सकता। स्त्रियां परतंत्र हैं तो प्रेम असंभव है। क्योंकि दो स्वतंत्र व्यक्ति ही प्रेम का आदान-प्रदान कर सकते हैं। जिस स्त्री को तुम दहेज देकर ले आए हो, जिस स्त्री को तुमने कभी देखा भी नहीं था और तुम्हारे मां-बाप ने तय कर दिया है और कोई पंडे-पुरोहितों ने जन्मकुंडली देख कर निर्णय लिया है। जिसका . निर्णय तुम्हारे हृदय से नहीं आया; जिसका निर्णय उधार, बासा, दूसरों का है, ऐसी स्त्री को तुम घर ले आए हो। इसमें सुविधा तो बहुत है, इसमें झंझट कम है; इसमें घर-गृहस्थी ठीक से चलेगी। लेकिन एक बात खयाल रखना, तुम्हारे जीवन में नृत्य का क्षण कभी भी न आ पाएगा; तुम्हारा प्रेम कभी समाधिस्थ न हो सकेगा। तुम इस प्रेम के मार्ग से परमात्मा को न जान सकोगे। एक स्वतंत्र व्यक्ति ही प्रेम दे सकता है। गुलाम सेवा कर सकता है, प्रेम नहीं दे सकता। मालिक सहानुभूति दे सकता है, प्रेम नहीं दे सकता। पति अगर मालिक है तो ज्यादा से ज्यादा दया कर सकता है। दया प्रेम है? कोई स्त्री दया नहीं चाहती। तुम जरा थोड़े हैरान होओगे, जहां प्रेम का सवाल हो वहां दया बड़ी बेहूदी और कुरूप है। कौन दया चाहता है? क्योंकि दया का अर्थ ही होता है कि मैं कीड़ा-मकोड़ा हूं और तुम आकाश के देवदूत हो। दया का अर्थ ही यह होता है कि मैं दयनीय हं; तुम देने वाले हो, दाता हो, मैं भिखारी हूं। प्रेमी कभी दया से तप्त नहीं होता। लेकिन मालिक दया दे सकता है, प्रेम कैसे देगा? और गुलाम सेवा कर सकता है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है। सेवा कर्तव्य है; करना चाहिए इसलिए करते हैं। पत्नी पति के पैर दबा रही है, क्योंकि पति परमात्मा है, पैर दबाने चाहिए; ऐसा शास्त्रों में कहा है। वह पैर दबा रही है शास्त्रों के कारण, अपने कारण नहीं। और जो पैर शास्त्रों के कारण दबाए जा रहे हैं वे न दबाए जाएं तो बेहतर। क्योंकि इन पैरों से कोई लगाव नहीं है, इन पैरों में कोई आस्था नहीं है, कोई श्रद्धा नहीं है, कोई प्रेम नहीं है। यह एक गुलामी का संबंध है। इन पैरों के साथ जंजीरें बंधी हैं। ये आकाश में उड़ते दो मुक्त पक्षी नहीं हैं; एक कारागृह में बंद हैं। यहूदियों में कहावत है कि शैतान एक बूढ़ा और मूर्ख सम्राट है। एक यहूदी फकीर हुआ झुसिया। वह बड़ा चिंतित था कि यह समझ में नहीं आता, यह कहावत समझ में नहीं आती। बूढ़ा समझ में आता है, क्योंकि आदमी से पुराना शैतान है; आदमियत नहीं थी तब भी शैतान था। अदम को भड़काया। तो बूढ़ा तो समझ में आता है। सम्राट भी समझ में आता है, क्योंकि सारी दुनिया का मालिक वही मालूम पड़ता है। लोग भला चर्चों में प्रार्थना करते हों परमात्मा की, लेकिन हृदय में प्रार्थना शैतान की करते हैं। शैतान की ही चीजों की तो मांग करते हैं परमात्मा से भी। तो असली मालिक तो वही है। तो सम्राट भी समझ में आता है। लेकिन मूर्ख, मूढ़ क्यों? यह समझ में नहीं आता। फिर झुसिया ने कहा कि मुझे सजा हो गई, जेल में डाल दिया गया; वहां मेरी समझ में रहस्य आ गया। जेल में हथकड़ी बंधी हैं और झुसिया ने देखा कि शैतान पास में बैठा है। तो उसने शैतान से कहा, अब समझ गए कहावत 250
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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