________________
ताओ उपनिषद भाग ५
तो अगस्तीन कहता है, प्रेम कर सको तो काफी है। प्रेम न कर सको तो फिर तुम्हें लंबी फेहरिस्त नियमों की मैं बताऊं। वे उनके लिए हैं जो प्रेम नहीं कर सकते हैं।
सब धर्मशास्त्र, सब आज्ञाएं उनके लिए हैं जो प्रेम नहीं कर सकते हैं। जो प्रेम कर सकता है उसके लिए बड़े से बड़ा शास्त्र मिल गया। अब किसी और शास्त्र की कोई जरूरत नहीं।
इसलिए तो जीसस कहते हैं कि प्रेम परमात्मा है। तुम कुछ मत करो, सिर्फ प्रेम कर लो। प्रेम का सार सूत्र क्या है कि जो तुम अपने लिए चाहते हो वही तुम दूसरे के लिए करने लगो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह तुम दूसरे के साथ मत करो। प्रेम का अर्थ यह है कि दूसरे को तुम अपने जैसा देखो, आत्मवत।
एक व्यक्ति भी तुम्हें अपने जैसा दिखाई पड़ने लगे तो तुम्हारे जीवन में झरोखा खुल गया। फिर यह झरोखा बड़ा होता जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है कि सारे अस्तित्व के साथ तुम ऐसे ही व्यवहार करते हो जैसे तुम अपने साथ करना चाहोगे। और जब तुम सारे अस्तित्व के साथ ऐसा व्यवहार करते हो जैसे अस्तित्व तुम्हारा ही फैलाव है तो सारा अस्तित्व भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है। तुम जो देते हो वही तुम पर लौट आता है। तुम थोड़ा सा प्रेम . देते हो, हजार गुना होकर तुम पर बरस जाता है। तुम थोड़ा सा मुस्कुराते हो, सारा जगत तुम्हारे साथ मुस्कुराता है। कहावत है कि रोओ तो अकेले रोओगे, हंसो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसता है। बड़ी ठीक कहावत है। रोने में कोई साथी नहीं है। क्योंकि अस्तित्व रोना जानता ही नहीं। अस्तित्व केवल उत्सव जानता है। उसका कसूर भी नहीं है। रोओ-अकेले रोओगे। हंसो-फूल, पहाड़, पत्थर, चांद-तारे, सभी तुम्हारे साथ तुम हंसते हुए पाओगे। रोने वाला अकेला रह जाता है। हंसने वाले के लिए सभी साथी हो जाते हैं, सारा अस्तित्व सम्मिलित हो जाता है।
प्रेम तुम्हें हंसा देगा। प्रेम तुम्हें एक ऐसी मुस्कुराहट देगा जो बनी ही रहती है, जो एक गहरी मिठास की तरह तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल जाती है। प्रेम काफी नियम है। और प्रेम नियम जैसा लगता ही नहीं।
तुम बच्चों को प्रेम दो, नियम नहीं। तुम्हारा प्रेम उनके जीवन में सारे नियमों की आधारशिला रख देगा। तुम उन्हें सिद्धांत मत दो। सिद्धांत तो कूड़ा-कर्कट है। तुम तो उन्हें हृदय की छांव दो। तुम तो उन्हें प्रेम का भाव दो। तुम इतना ही बच्चों को सिखा दो कि वे भी तुम जैसा प्रेम करने लगें; तुमने सब सिखा दिया। फिर तुम उन्हें छोड़ दे सकते हो इस विराट संसार में; उनसे कोई भूल न होगी।
और तुम सब तरह के सिद्धांत उन्हें दे दो, और सब शास्त्र उनके सिर पर रख दो-और उन्हें प्रेम मत दो-तुम्हारी आंख बचते ही तुम्हारे शास्त्रों को एक तरफ फेंक कर लात मार कर वे वहीं चले जाएंगे जहां जाने से तुमने उन्हें रोका था। तुम्हारे निषेध उनके चरित्र को रूपांतरित न करेंगे। तुम्हारा विधायक भाव!
और जो दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है वही समाज और शासन का संबंध है। शासन ऐसे है जैसे माता-पिता, प्रजा ऐसे है जैसे बच्चे। इसीलिए तो हम राजा को पिता कहते थे पुराने दिनों में। चाहे राजा की उम्र कम भी हो तो भी वह पिता था। और प्रजा उसकी संतान थी। इसके पीछे कारण है कहने का। कारण यही है कि जिसको भी शासन देना है उसे एक गहरे प्रेम के आत्मीय संबंध में बंध जाना जरूरी है। यह तुम्हें खयाल में आ जाए तो लाओत्से का सूत्र बड़ा आसान हो जाएगा। एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करें। _ 'मानवीय कारबार की व्यवस्था में, मिताचारी होने से बढ़िया दूसरा नियम नहीं है।'
मिताचार का अर्थ है बहुत गहन, अनेक आयामी। एक आयाम है मिताचार का कि आचरण के नियम जितने कम हों-कम से कम हों-उतना अच्छा। अंगुलियों पर गिने जा सकें; बहुत ज्यादा नियमों का जाल न हो। अक्सर अधिक नियमों के जाल में ही भटकाव पैदा हो जाता है। बहुत नियम चाहिए भी नहीं। एक ऐसा नियम चाहिए जो सभी नियमों को समाविष्ट कर लेता हो। और जीवन की व्यवस्था बड़ी सरल चाहिए।
नामक भाव!
246