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नियमों का नियम प्रेम व स्वतंत्रता है
उपनिषद में ऐसी एक भी आज्ञा नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं, उपनिषद जिन्होंने रचा वे बहुत बुद्धिमान लोग थे। उपनिषद में एक भी निषेधात्मक आज्ञा नहीं है। उपनिषद यह नहीं कहता कि चोरी मत करो। उपनिषद कहता है, दान दो, बाटो। उपनिषद यह नहीं कहता कि व्यभिचार मत करो। उपनिषद कहता है, ब्रह्मचर्य को उपलब्ध करो। उपनिषद यह नहीं कहता, यह संसार बुरा है, छोड़ो। उपनिषद कहता है, परमात्मा परम भोग है, खोजो।
बात वही है। लेकिन जहां विधेय होता है वहां तोड़ने का सवाल नहीं उठता। जहां विधेय है, जहां कोई चीज पाजिटिव है-परमात्मा को खोजो; इसमें क्या तोड़ना है? तोड़ने का कोई मजा ही नहीं है इसमें। तोड़ने का तो मजा ही तब आता है जब कोई कहे, नहीं। वहीं तुम्हारे भीतर भी अहंकार मजबूत हो जाता है। वहीं तुम तोड़ने को तत्पर हो जाते हो। वहीं तुम्हारे अहंकार पर कोई आक्रमण कर रहा है। 'नहीं' आक्रामक है अहंकार के लिए, और अहंकार उसे बरदाश्त नहीं करेगा; उसे तोड़ कर दिखलाएगा।
इसे स्मरण रखना। मानवीय व्यवस्था में नहीं जितना कम बीच में आए उतना अच्छा। हां को बीच में आने दो, क्योंकि हां जोड़ता है। नहीं तोड़ता है। और तुम्हारे सब नियम नहीं पर आधारित होते हैं। हां पर करो उन्हें आधारित,
और तब तुम पाओगे कि पचास नहीं पर आधारित नियम एक हां पर आधारित नियम में समाविष्ट हो जाते हैं। इतने नियमों की जरूरत नहीं है।
संत अगस्तीन से किसी ने पूछा कि मुझे जीवन अपना सुधारना है तो मैं कौन-कौन से नियमों का पालन करूं? तो संत अगस्तीन ने कहा, अगर नियमों का पालन करने गया और यह पूछा कि कौन-कौन से, तो नियम हजार हैं, जिंदगी बहुत थोड़ी है। तो तुझे मैं एक ही नियम बता देता हूं कि तू प्रेम कर। तो उस आदमी ने कहा, इससे सब हो जाएगा? अगस्तीन ने कहा, सब हो जाएगा। क्योंकि जो प्रेम करेगा वह चोरी कैसे कर सकता है? जो प्रेम करेगा वह हिंसा कैसे कर सकता है? जो प्रेम करेगा वह किसी का अपमान कैसे कर सकता है? जो प्रेम करेगा उसके जीवन में जो-जो कांटे हैं वे अपने से झर जाएंगे। क्योंकि प्रेम केवल फूल को ही खिला सकता है। प्रेम में कोई कांटे नहीं हैं। जो प्रेम करता है, वह क्रोध और घृणा और वैमनस्य और प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकेगा? जो प्रेम करता है उसे तुमने कभी लोभ करते देखा? उनका कोई मेल ही नहीं होता।।
अगर लोभ करना हो तो प्रेम भूल कर मत करना। अगर लोभ करना हो तो प्रेम की बात में ही मत पड़ना। इसीलिए तो कृपण आदमी कभी प्रेम नहीं करता; कर ही नहीं सकता। कृपणता का प्रेम से कोई संबंध नहीं है। लोभी धन इकट्ठा करता है। और प्रेम खतरनाक है उसके लिए। प्रेम से ज्यादा खतरनाक कुछ भी नहीं है। क्योंकि प्रेम का मतलब है—बांटो। इसलिए लोभी प्रेम की झंझट में कभी नहीं पड़ता, हालांकि वह भी सिद्धांत खोज लेता है। लोग बड़े कुशल हैं। वह कहता है, राग से मैं दूर ही रहता हूं। कृपण अपने को वीतराग समझता है। कृपण कहता है, क्या रखा है संबंधों में? यह तो वह कहता है, लेकिन तिजोड़ी में रखता चला जाता है। धन ही उसका एकमात्र संबंध है।
और जिसका धन से संबंध है उसका जीवन से कोई संबंध नहीं रह जाता। प्रेम तो जीवंत संबंध है। धन तो मृत वस्तु से संबंध है। धन से ज्यादा मरी हुई कोई चीज है? रुपये से ज्यादा मुर्दा कोई चीज तुम दुनिया में खोज सकते हो? पत्थर भी पड़ा-पड़ा बढ़ता है, पत्थर भी फैलता है। सारा अस्तित्व जीवंत है। लेकिन रुपया तुम बिलकुल मरा हुआ पाओगे। रुपये में कोई जीवन नहीं है। और जो आदमी रुपये को इकट्ठा करने में लग जाता है उसकी आत्मा भी मर जाती है। और प्रेम तो वहां खिलता है जहां आत्मा जीवंत होती है।
तो जो प्रेम करता है वह लोभ नहीं कर सकता। जो प्रेम करता है वह कृपण नहीं हो सकता, परिग्रही नहीं हो सकता। एक प्रेम हजार नहीं वाले नियमों को अकेला सम्हाल लेता है। एक हां इतना बड़ा आकाश है कि हजारों नियमों के छोटे-छोटे पौधे उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। और बिना दंश के, बिना कांटे के।
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