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नियमों का बियम प्रेम व स्वतंत्रता है
और परेशानी के कुछ होगा नहीं। बुद्धिमान पिता तो बच्चे को सिगरेट लाकर दे देगा। क्योंकि आज नहीं कल किसी न किसी का अनुकरण तुम करोगे ही, तुम खुद ही अनुभव से जान लो। मैं कुछ कहता नहीं, तुम अनुभव से जान लो। अगर प्रीतिकर लगे तो आगे बढ़ना, अगर अप्रीतिकर लगे तो रुक जाना। लेकिन तुम्ही निर्णायक हो, मैं निर्णायक नहीं हूं। और अगर पिता यह कर सके तो बच्चे के जीवन में धूम्रपान का जो पहला आकर्षण था वह नष्ट कर दिया। और तब बच्चा दूसरों को धूम्रपान करते देख कर सिर्फ हंसेगा कि कैसे मूढ़ हैं!
लेकिन तुमने कहा, मत करना! रस पैदा हुआ। इनकार में बड़ा रस है। अब बच्चे के मन में एक ही बात घूमेगी, उसके सपनों में एक ही बात घूमेगी कि कब मौका पा जाए, कोई एकांत क्षण में धूम्रपान करके देख ले।
और तुम्हारा जितना निषेध होगा उतना ही बच्चा धूम्रपान की पीड़ा भी झेल लेगा, लेकिन तुम्हारे निषेध को तोड़ कर रहेगा। तोड़ कर ही तो उसको बल मिलेगा। तोड़ कर ही तो वह भी अनुभव करेगा कि मैं भी कुछ हूं, तुम्हीं सब कुछ नहीं हो।
एक संघर्ष है जो पिता और बेटे में चलता है। एक संघर्ष है जो मां और बेटी में चलता है। वह संघर्ष बिलकुल स्वाभाविक है। उस संघर्ष से ही तो बच्चा बड़ा होता है। इसे तुम ऐसा समझो। संघर्ष बड़े प्राथमिक क्षण से शुरू हो जाता है। मां के गर्भ में शुरू हो जाता है। इसीलिए तो बच्चे के जन्म के समय इतनी पीड़ा होती है। क्योंकि बच्चा इनकार करता है बाहर आने से। वह जहां है सुख में है। वह जकड़ता है अपने को, रोकता है अपने को। एक संघर्ष शुरू हो गया। एक कलह शुरू हो गई। यह कलह फिर जीवन भर जारी रहेगी।
पिता और मां और उनके बच्चों के बीच या तो समझदारी का संगीत हो तो कलह को सृजनात्मक रूप दिया जा सकता है। अगर यह संगीत न हो, और ध्यान रखना, इसका जिम्मा बच्चे पर नहीं हो सकता, क्योंकि बच्चा तो अभी कुछ भी नहीं जानता है। इसका जिम्मा तो बड़ों पर होगा। और बड़ों ने अगर छोटी, क्षुद्र बातों के ऊपर बड़ी सख्ती की, तो यह बच्चा उनके हाथ से छूट जाएगा। फिर वे रोएं, चीखें-चिल्लाएं, इससे कुछ भी होने वाला नहीं है। बच्चा इसमें आनंदित होगा कि तुम पीड़ित हो; क्योंकि इसका मतलब होता है, बच्चा शक्तिशाली हो रहा है; तुम्हें पीड़ित कर सकता है। तुम ही उसे पीड़ित नहीं कर सकते, वह भी पीड़ित कर सकता है। अब एक राजनीतिक दांव-पेंच बाप और बेटे के बीच चलेगा।
जो बाप और बेटे के लिए सही है वही बहुत से आयामों में सही है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच भी वही सही है। शासक और शासित के बीच भी वही सही है। जहां-जहां किसी को चलाना है, कोई दिशा देनी है, किसी मार्ग को पकड़ाना है, वहां-वहां वही कठिनाई आएगी।
लाओत्से कहता है, कम से कम नियम, न्यूनतम नियम, बस उतने ही नियम चाहिए जिनके बिना चल ही न सके। जिनके बिना चल सके वे नियम काट देना।
दो व्यक्तियों के बीच का संबंध स्वतंत्रता पर आधारित हो, शासन पर नहीं। और मजा यही है कि तुम जितना किसी दूसरे को स्वतंत्र करोगे उतना ही वह तुमसे शासित होने को तत्पर और राजी हो जाता है। क्योंकि अब तुम्हारा शासन उसके अहंकार को चोट नहीं पहुंचाता। अब तुम्हारा शासन मित्र है, अब तुम्हारा शासन शत्रु की भांति नहीं है। इसलिए जो भी तुम किसी को कहो वह इस भांति कहना कि वह सुझाव से ज्यादा न हो; आदेश कभी न बने। वही मिताचार है।
लेकिन बाप की अपनी अकड़ है। वह सोचता है, बेटे को सुझाव क्या देना, सीधा आदेश, आज्ञा। वहां भूल है। सुझाव से ज्यादा कुछ भी नहीं किया जा सकता। और सुझाव भी ऐसा होना चाहिए कि अगर तुम ठीक कुशल होओ तो दूसरे को ऐसा लगेगा कि उसके भीतर से ही आया है।
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