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________________ आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है 15 ‘व्यक्ति निष्क्रियता को उपलब्ध होता है, और तब नहीं करने से सब कुछ किया जाता है।' तब वह कुछ करता नहीं है। लाओत्से जैसे लोग कुछ करते नहीं हैं। लेकिन उनके न करने में इतनी क्षमता है; क्योंकि उनके न करने में वे परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं। परमात्मा को तुमने कहीं कुछ करते देखा - कहीं वृक्षारोपण करते ? कहीं सड़क बनाते ? कहीं दवा घोंटते मरीजों के लिए ? तुमने उसे कहीं नहीं देखा होगा । वह कहीं कुछ करता हुआ नहीं दिखाई पड़ता; इसीलिए तो तुम उसे देख नहीं पाते। क्योंकि तुम्हारा विचार केवल कृत्य को देख सकता है। निर्विचार निष्क्रिय परमात्मा को देख सकता है। सक्रिय बुद्धि केवल सक्रियता को देख सकती है। सक्रिय बुद्धि केवल पदार्थ को देख सकती है। निष्क्रिय बुद्धि केवल आकाश, शून्य को देख पाती है। उस जैसे हो जाओ, तभी तुम उसे देख सकोगे। जैसे-जैसे कोई व्यक्ति निष्क्रिय होता है, वैसे-वैसे अदृश्य जैसा हो जाता है। क्योंकि उसकी छाप कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती; उसका स्वर कहीं नहीं सुनाई पड़ता । वह शून्यमात्र जाता है। उस शून्यता में ही परम घटना घटती है। कबीर ने कहा है, अनकिए सब होए। वही लाओत्से कह रहा है। लाओत्से कह रहा है, 'नहीं करने से सब कुछ किया जाता है। बाइ डूइंग नथिंग एवरीथिंग इज़ डन।' यह कैसे होता होगा ? न करने से सब कुछ कैसे होगा ? सब कुछ हो ही रहा है। जैसे नदी बह रही है। लेकिन तुम अपने अज्ञान में धक्का दे रहे हो, और तुम सोचते हो : धक्का न देंगे तो नदी बहेगी कैसे ? तुम नाहक खुद ही थके जा रहे हो । नदी को धक्का देने की जरूरत नहीं है; वह अपने से बह रही है; बहना उसका स्वभाव है। अस्तित्व को सुधारने की जरूरत नहीं है; सुधरा हुआ होना उसका स्वभाव है। वह अपनी परम उत्कृष्ट अवस्था में है ही। कुछ रंचमात्र करना नहीं है। लेकिन तुम नाहक शोरगुल मचाते हो, उछलकूद मचाते हो। उसमें तुम खुद ही थक जाते हो, परेशान होते हो । 'नहीं करने से सब कुछ किया जाता है। जो संसार जीतता है, वह अक्सर नहीं कुछ करके जीतता है।' दो तरह के विजेता इस संसार में होते हैं। एक विजेता जिनका नाम इतिहासों में लिखा है- सिकंदर, नेपोलियन, स्टैलिन, माओ । ये विजेता कुछ करते हुए दिखाई पड़ते हैं । ये विजेता नहीं हैं। और इनसे कुछ सार न तो किसी दूसरे को होता है, न इनकी खुद की कोई उपलब्धि है। एक और विजेता है - लाओत्से, कृष्ण, महावीर, बुद्ध । महावीर को तो हमने जिन इसीलिए कहा । जिन का अर्थ है, जिसने जीता। जिन के कारण उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। जिन का अर्थ है विजेता, जिसने जीत लिया। लेकिन महावीर ने किया कुछ नहीं । वे खड़े रहे जंगलों में नग्न, आंख बंद किए वृक्षों के नीचे । कभी किसी ने उन्हें कुछ करते नहीं देखा, कि किसी कोढ़ी का पैर दबा रहे हों, कि किसी की मलहम पट्टी कर रहे हों, कि किसी समाज-सुधार के कार्य में लगे हों, कि कोई अस्पताल में नर्स का काम कर रहे हों। किसी ने कभी कुछ करते नहीं देखा। लेकिन महावीर को हमने जिन कहा। उन्होंने जीत लिया। जीतने की कला एक ही है कि तुम कुछ मत करो, तुम शांत हो जाओ। और तत्क्षण तुम परमात्मा के उपकरण हो जाते हो। वह तुम्हारे भीतर से करना शुरू कर देता है। लेकिन उसके करने के ढंग बड़े अदृश्य हैं। उसके करने के ढंग पर अदृश्य हैं। आवाज भी नहीं होती, और सब हो जाता है। पदचिह्न भी सुनाई नहीं पड़ते, और सारी यात्रा पूरी हो जाती है । पदचिह्न बनते भी नहीं, और मंजिल आ जाती है। 'जो संसार जीतता है, वह अक्सर नहीं कुछ करके जीतता है । और यदि कुछ करने को बाध्य किया जाए, तो संसार उसकी जीत के बाहर निकल जाता है।'
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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