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________________ शासन जितना कम हो उतना ही शुभ 237 सिंहासन के पास होगा, राजधानी में होगा, सम्राटों के पास होगा। वहां तुम्हारी आंखें चकाचौंध से भर जाएंगी। वहां तुम्हारी आंखें थक जाएंगी। वहां से तुम ताजे होकर न लौटोगे। वहां से तुम कितने ही अभिभूत हो जाओ, प्रभावित हो जाओ, लेकिन वह प्रभाव बीमारी की भांति होगा, भारी होगा। सम्राट भी लोगों को प्रभावित करते हैं, लेकिन उनके प्रभाव में बड़ा दंश है। फफोले उठ आएंगे उनके प्रभाव से तुम्हारे ऊपर । तुम्हारे व्यक्तित्व में घाव की तरह उनका प्रभाव पड़ेगा। तुम वहां से दीन होकर लौटोगे। तुम उस चाकचिक्य से, चकाचौंध से भर कर तुम्हारी आंखें अंधेरे में होकर लौटेंगी, तुम अंधे होकर लौटोगे। एक प्रभाव सम्राटों का है। इसलिए तो हमने इस देश में कहा है कि चक्रवर्ती भी कुछ नहीं है एक संत के सामने । चक्रवर्ती हम उसको कहते हैं जो सारी पृथ्वी का सम्राट हो । तलवार की धार की तरह वह तुम्हें काट देगा। लेकिन तुम कट कर लौटोगे। तुम खंड-खंड होकर आओगे। तुम जल कर आओगे। उतनी आग तुम्हें केवल बीमारी दे सकती है। संत भी अनूठी महिमा को उपलब्ध होता है । सब सिंहासन फीके हैं, चक्रवर्ती भी चरण छुएं। क्या होगा ? संत की क्या खूबी है ? उसकी खूबी है कि उसके पास एक और तरह की आग है। तुम उसकी आग को पी सकते हो, तुम उसकी आग को भोजन बना सकते हो, तुम जलोगे न । उसकी आग में कहीं भी चोट नहीं है। दीप्ति बड़ा कीमती शब्द है । जैसे सुबह जब सूरज नहीं उगा होता, रात जा चुकी, सूरज अभी नहीं उगा, तब जैसा प्रकाश होता है वह दीप्ति है। रात गई, अंधेरा अब नहीं है, सूरज अभी आया नहीं। क्योंकि सूरज चक्रवर्तियों जैसा है, वह जला देगा। तुम उसकी तरफ आंख उठा कर न देख सकोगे, तुम्हारी आंखें अंधेरे से भर जाएंगी। अगर ज्यादा देखा तो अंधे हो जाओगे। सुबह का आलोक दीप्ति है । या सांझ को जब सूरज जा चुका और अभी रात नहीं आई, वह बीच का जो संध्या काल है, वह दीप्ति है। इसलिए हिंदू अपनी प्रार्थना को संध्या कहते हैं। वह दीप्ति जैसी होनी चाहिए प्रार्थना। आग तो हो विरह की, पर बड़ी ठंडी और शीतल हो । तृप्त करे, भरे; जलाए न, जिलाए; राख न कर दे तुम्हें, तुम्हारी राख को अंकुरित करे, तुम्हें नया जन्म दे । 'संत दीप्त होते हैं, पर कौंध वाले नहीं।' लाओत्से क्या कहना चाहता है? लाओत्से यह कहना चाहता है कि शासन संतों जैसा होना चाहिए। दीप्ति तो हो, कौंध न हो। लाओत्से यह कह रहा है कि वस्तुतः शासन संत का होना चाहिए, जो कि जला नहीं सकता, जो मिटा नहीं सकता, जो कि तुम्हें लूट नहीं सकता। क्योंकि जो भी पाने योग्य है उसने पा लिया है। जिसे तुम कुछ भी नहीं दे सकते, जिसके पास सब कुछ है, जो भरपूर है, जो आकंठ डूबा है आनंद में, जिसे तुमसे लेने को कुछ भी नहीं बचा है, उसका ही शासन होना चाहिए। उसका शासन अदृश्य होगा । जैनों ने महावीर के वचनों को महावीर का शासन कहा है। बौद्धों ने भी बुद्ध के वचनों को बुद्ध का शासन कहा है। बौद्धों और जैनों ने, दोनों ने महावीर और बुद्ध को शास्ता कहा है- जो शासन दें, जिनसे शासन मिले। शासन उससे मिलना चाहिए जो स्वयं स्वतंत्र हो गया है। जो स्वयं स्वतंत्र हो गया है वह किसी को परतंत्र नहीं करता। उसकी स्वतंत्रता दूसरों के भी बंधन खोलती है, निर्ग्रथ करती है। उसकी स्वतंत्रता दूसरों को भी स्वतंत्र करती है । वह वही दूसरों के लिए करता है जो उसके लिए हो गया है। संत का शासन लाओत्से की अभीप्सा है, कि कभी ऐसी घड़ी आएगी जब संत हम शासन लेंगे। दीप्ति की तरह फैल जाएगा उसका शासन । कुछ सौभाग्यशाली लोग संतों से शासन ले लेते हैं। पूरी पृथ्वी कब लेगी, न लेगी, कुछ कहना कठिन है। कुछ सौभाग्यशाली ले लेते हैं।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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