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ताओ उपनिषद भाग ५
वे सीधे होते हैं, लेकिन यह सीधे होने का कोई दंभ उनमें नहीं होता। इसलिए उनमें कोई निरंकुशता नहीं होती।
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन एक डाक्टर के पास गया। सिर में उसे दर्द था। और बहुत तेज दर्द था, जैसे कोई स्क्रू भीतर घुमा रहा हो, या कि कोई छुरी से भीतर काट रहा हो। तो वह बड़ा बेचैन था, सिर पकड़े हुए प्रवेश किया। डाक्टर ने उससे पूछा, बीमारी की जांच-पड़ताल की, तो पूछा कि सिगरेट, सिगार, ऐसी कोई चीज तो नहीं पीते? धूम्रपान तो नहीं करते? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं, कभी नहीं। चाय-काफी, पूछा डाक्टर ने, इस तरह की कोई चीज तो नहीं लेते जिसमें निकोटिन हो? नसरुद्दीन ने और भी जोर से कहा कि कभी नहीं! उस आदमी ने पूछा, और शराब इत्यादि का तो उपयोग नहीं करते? नसरुद्दीन क्रोध से खड़ा हो गया। उसने कहा, तुमने समझा क्या है? डाक्टर ने कहा, और आखिरी बात और कि कोई परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, कोई इस तरह की लत में तो नहीं पड़े हैं? नसरुद्दीन तो झपट्टा मार दिया उस डाक्टर पर। नसें खिंच गईं। उसने कहा, तुमने समझा क्या है? कोई चोर-लफंगा? कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा? तुम्हें पता नहीं मैं कौन हूं? मैं अखंड ब्रह्मचारी हूं, बाल ब्रह्मचारी। और इतना ही नहीं कि मैं ब्रह्मचारी हूं, मेरे पिता भी अखंड बाल ब्रह्मचारी थे। यह हमारे वंश में सदा से ही चला आया है। उस डाक्टर ने कहा, इलाज हो जाएगा; बीमारी पकड़ ली गई। तुम शांति से बैठो। तुम्हारा चरित्र तुम्हारे सिर में जरूरत से ज्यादा घुस गया है; उससे दर्द हो रहा है।
जब चरित्र तुम्हें सिरदर्द देने लगे तो थोड़ा सावधान हो जाना। जब चरित्र तुम्हारा दंभ बन जाए और अकड़ बन जाए और तुम्हारी चाल बदल जाए तो तुम सावधान हो जाना। यह चरित्र न हुआ, दुश्चरित्रता हो गई। इससे तो दुश्चरित्र बेहतर, कम से कम विनम्र तो है। दुश्चरित्रता इतनी बुरी नहीं जितना दंभ बुरा है।
संत में चरित्र होगा और चरित्र का कोई एहसास नहीं होगा, सेल्फ-कांशसनेस नहीं होगी। चरित्र ऐसे होगा जैसे कि हाथ हैं, कान हैं, नाक है; इनके लिए कोई अलग से घोषणा नहीं करनी पड़ती, हैं। चरित्र ऐसे होगा जैसे श्वास चलती है। अब इसकी कोई घोषणा तो नहीं करनी पड़ती कि हम श्वास ले रहे हैं, देखो। इसके लिए कोई यश-गौरव करे, ऐसी तो आकांक्षा नहीं होती कि हम श्वास ले रहे हैं। उसमें कोई खास बात ही नहीं है। चरित्र श्वास, जैसा होगा संत का। और अगर चरित्र ऐसा न हो तो समझ लेना कि वह चरित्र असाधु का है, साधु का नहीं।
'वे सीधे होते हैं।'
उनकी सादगी इतनी सादी होती है कि उन्हें उसका पता भी नहीं होता। क्योंकि जिस सादगी का पता चल जाए वह सादी न रही। जिस सीधेपन का पता चल जाए वह सीधापन तिरछापन हो गया। उसमें नोक आ गई। उसमें अकड़ पैदा हो गई।
'वे दीप्त होते हैं, पर कौंध वाले नहीं।' बड़ा कीमती वचन है! 'ब्राइट, बट नाट डैजलिंग।'
उनमें एक माधुर्य और माधुर्य से भरी ज्योति होती है, लेकिन शीतल। तुम उससे जल न सकोगे। उसमें कोई उत्ताप नहीं होता, कोई बुखार नहीं होता, कोई ज्वर नहीं होता। संत के पास तुम जल न सकोगे। तुम उसके प्रकाश को कितना ही पी लो तो भी वह शीतल ही अनुभव होगा। वह तुम्हारे रोएं-रोएं को पुलकित करेगा, लेकिन पसीने से न भर देगा।
इस फर्क को ठीक से समझ लो। क्योंकि संत ठंडी आग है। आग होना भी बहुत आसान है, ठंडा होना भी बहुत आसान है। ठंडी आग होना बहुत कठिन है। वह परम ज्ञान का लक्षण है। जब दीप्ति तो होती है, लेकिन दीप्ति में कोई ज्वर, त्वरा, चोट नहीं होती। आंखें चकाचौंध से नहीं भर जातीं संत के पास। वैसा चाकचिक्य देखना हो तो
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