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________________ शासन जितबा कम हो उतना ही शुभ न तुम्हारे टिकाए कुछ टिकता है, और न तुम्हारे हटाए कुछ हटता है। इसे अगर तुमने जान लिया तो तुम समझदार हो। क्या हटता है तुम्हारे हटाए? किस दुख को तुम हटा पाते हो? चित्त जब उदास होता है, तुम कोई उपाय करके उदासी से बाहर हो सकते हो? चित्त जब प्रसन्न होता है, कोई उपाय है जिससे तुम प्रसन्नता को पकड़ लो और तिजोड़ी में कैद कर लो कि जब चाहो तब निकाल लिया तिजोड़ी से, थोड़ी देर खेले, प्रसन्न हुए, बंद कर दिया। इतना लंबा जीकर भी तुम्हें यह समझ में नहीं आया कि न तुम्हारे पकड़े कुछ बचता है, न तुम्हारे हटाए कुछ हटता है। आती है प्रसन्नता और चली जाती है, जैसे तुमसे अलग ही उसकी यात्रा का पथ है। छाया आती है, धूप आती है; तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे उसके आने-जाने का अलग ही वर्तुल है। तुम तो सिर्फ दर्शक हो। तुम्हारी भ्रांति एक ही है कि तुमने अपने को कर्ता मान लिया। __ अगर तुम कर्ता न मानो तो तुम बड़े हैरान होओगे, जैसे उदासी आती है वैसे ही चली जाती है; तुम अनछुए, अस्पर्शित पीछे खड़े रहते हो। तब खुशी-हंसी भी आती है, वह भी चली जाती है। जैसे-जैसे यह भाव प्रगाढ़ होता है वैसे-वैसे तुम मुक्त होने लगते हो। तब तुम अपने जीवन को भी अनुशासन नहीं देते। लाओत्से कह रहा है, अनुशासन के बहुत तल हैं। दूसरे तुम्हें अनुशासन दे रहे हैं-वह राज्य। फिर तुम अपने को अनुशासन देने की कोशिश करते हो-वह नीति। इसलिए तो हम राजनीति और नीति शब्द का उपयोग करते हैं। क्योंकि दोनों का मतलब एक ही है गहरे में। राजनीति का अर्थ है, दूसरे तुम्हें नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। और नीति का अर्थ है, तुम खुद ही अपने को नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हो।। न दूसरे तुम्हें बना सकते हैं, न तुम खुद अपने को बना सकते हो। दूसरे भ्रांति में हैं कि उनके ऊपर दुनिया का भार है सुधारने का। तुम भी इस भ्रांति में हो कि यह कर्तृत्व तुम्हारा है कि तुम अपने को शुद्ध, चरित्रवान, शीलवान बना कर रहोगे। राजधानियों का अहंकार भी झूठा है, और तुम्हारा अहंकार भी झूठा है। इस जगत में चेतना साक्षी की भांति है, कर्ता की भांति नहीं। कर तो तुम कुछ भी न पाओगे। करने की भ्रांति के कारण ही तो इतना भटके हो जन्मों-जन्मों तक। कब तक भटकते रहोगे? क्यों नहीं छोड़ देते उस भ्रांति को और एक बार साक्षी होकर देखते? और तब साक्षी के पीछे एक अनुशासन आता है जो लाया गया नहीं है, जो प्रयास से नहीं आया है, जो निष्प्रयत्न फला है। तब एक वर्षा हो जाती है आशीर्वादों की, तब सब तरफ से आनंद सघन होकर तुम्हारे ऊपर गिरने लगता है। बिन घन परत फुहार। कोई बादल भी दिखाई नहीं पड़ता और वर्षा होती है। कोई कारण समझ में नहीं आता, कोई कर्ता नहीं है, कोई लाने वाला नहीं है, और आनंद बरसता चला जाता है। जब तक यह घड़ी न आ जाए, बिन घन परत फुहार, तब तक समझना कि भटक रहे हो। लाओत्से कहता है, मनुष्य-जाति इस सीमा तक भटक गई है कि जो आनंद बिना किए मिल सकता है, उसको भी वह उपलब्ध नहीं कर पाती। इससे ज्यादा भटकाव और क्या होगा? जो संपदा बिना कुछ किए मिल सकती है, तुम उसको भी नहीं खोज पा रहे! नहीं खोज पा रहे हो, क्योंकि तुम उस संपदा को खोजने में लगे हो जो कि मिल ही नहीं सकती। तो सारी ऊर्जा गलत दिशा में प्रवाहित है। 'इसलिए संत ईमानदार, दृढ़ सिद्धांत वाले होते हैं, लेकिन काट करने वाले या तीखे नोकों वाले नहीं।' यह संत के स्वभाव को समझने की कोशिश करो। 'देयरफोर दि सेज इज़ स्क्वायर, हैज फर्म प्रिंसिपल्स, बट नाट कटिंग, शार्प कार्ड।' चौकोन आकार का है संत, क्योंकि चौकोन आकृति की कोई भी चीज दृढ़ होती है। उसे तुम जमीन पर रख दो, वह जम जाती है, वह थिर होती है। उसे हटाना आसान नहीं होता। उसे कंपन नहीं आता, वह निष्कंप होती है। तो लाओत्से कहता है, 'दि सेज इज़ स्क्वायर।'
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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