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ताओ उपनिषद भाग ५
एक दृढ़ता है संत की जो बड़ी अनूठी है, जो उसके होने के ढंग से आती है। इसलिए स्क्वायर, इसलिए चौकोन आकृति वाला है संत।
तुमने अगर एक जापानी गुड़िया दारुमा देखी हो-दारुमा डॉल। उस गुड़िया को तुम कैसा ही फेंको, वह सदा पालथी मार कर बैठ जाती है। दारुमा जापानी में भारतीय अनूठे पुरुष बोधिधर्म का नाम है। जापानी भाषा में बोधिधर्म का नाम दारुमा है। और वह जो पुतली है वह बोधिधर्म की है, जिसने भारत से चीन में बौद्ध-धर्म की शाखाएं आरोपित की। स्क्वायर का वह अर्थ है कि तुम संत को कैसा ही घुमाओ-फिराओ, उलटा-सीधा पटको, कुछ भी करो, हमेशा तुम सिद्धासन में बैठा हुआ पाओगे। वह दारुमा डॉल घर में रखनी चाहिए, उसे फेंक-फेंक कर देखना चाहिए कि वह संत का स्वभाव है। तुम उसे उलटा सिर के बल फेंको, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वह वजनी है पैरों में, वह तत्क्षण बैठ जाती है।
संत को हिलाने का उपाय नहीं; वह दारुमा डॉल है। वह कंपित नहीं होता। तूफान आएं, सुख आएं, दुख आएं, कुछ उसे उत्तेजित नहीं करता। वह हर घड़ी अपने सिद्धासन में बैठा रहता है। उसके भीतर सिद्धासन लगा है।
यह सिद्धासन शरीर का नहीं है। हमने जो तीर्थंकरों, बुद्धों की, सबकी प्रतिमाएं सिद्धासन में बनाई हैं, इससे तुम यह मत समझना कि वे इसी तरह बैठे रहते थे चौबीस घंटें । ये तो भीतर के प्रतीक हैं; इस भांति भीतर हो गए थे, दारुमा डॉल की भांति। इनकी पालथी ऐसी लग गई थी कि अब उसे हिलाने का कोई उपाय न था। ये ऐसे दृढ़ हो गए थे।
तो एक तो दृढ़ता मन की भी होती है। वह दृढ़ता झूठी होती है। उसके भीतर डर छिपा होता है।
मैं जहां पढ़ता था, मेरे स्कूल में एक शिक्षक थे जो हमेशा कहते कि अंधेरे से मुझे बिलकुल डर नहीं लगता; अंधेरी रात में मैं मरघट भी चला जाता हूं।
तो मैंने उनसे कहा कि आप इतनी बार यह बात कहते हैं कि शक होता है। इस बात को बार-बार कहने की क्या जरूरत हम छोटे बच्चों के सामने कि मैं बिलकुल नहीं डरता? यह कोई बात है! नहीं डरते तो अच्छा। मगर आप किस पर रोब गांठ रहे हैं कि मरघट अकेला चला जाता हूं? जरूर इसमें कहीं आपके भीतर डर है। डर को आप अपने मन की बातों से भुलाने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं बिलकुल सुदृढ़ आदमी हूं, मैं भयभीत नहीं होता।
___ अक्सर तुम ऐसी दृढ़ता करते हो। तुम कहते हो कि मैं जो कसम खा रहा हूं, सदा इसका पालन करूंगा। लेकिन अगर तुम उसी वक्त भी भीतर झांक कर देखो तो तुम पाते हो तुम जानते हो कि यह पूरा होने वाला है नहीं। अपने को भुला रहे हो। और जितना तुम अपने को भुलाना चाहते हो उतने ही जोर से बोलते हो। खुद की आवाज सुन कर भरोसा लाने की कोशिश कर रहे हो।
तुम्हारी दृढ़ता का कोई मतलब नहीं, तुम्हारी दृढ़ता के पीछे जब तक कि तुम्हारी चेतना न हो। मन के संकल्प कोई संकल्प नहीं, पानी पर खींची लकीरें हैं। वे टिकने वाली नहीं, तुम कितने ही जोर से खींचो। कुछ टिकेगा नहीं मन पर; मन कभी दृढ़ होता ही नहीं। मन का स्वभाव दृढ़ता नहीं है, चंचलता है। वह कभी चौकोर नहीं है। तुम मन की दारुमा पुतली नहीं बना सकते, तुम लाख उपाय करो। वह पालथी तो चेतना की ही लगती है। वह सिद्धासन तो आत्मा का ही है। उसके पहले नहीं हो सकती वह दृढ़ता।
संत दृढ़ होता है। उसे खुद पता भी नहीं होता कि वह दृढ़ है। क्योंकि पता अगर हो तो विपरीत का भी पता होगा। वह दृढ़ होता है। उसकी दृढ़ता स्वाभाविक है। संत दृढ़ होते हैं और उनकी दृढ़ता से ही उनका ईमान प्रकट होता है। उनकी दृढ़ता से ही उनकी प्रामाणिकता आती है, उनके संकल्प से नहीं। वह उनके स्वभाव से आविर्भूत होती है।
__एक तो ईमान है जो तुम सोच-विचार कर लाते हो। और एक ईमान है जो तुम्हारे स्वभाव की अनुभूति से प्रकट होता है।
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