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ताओ उपनिषद भाग ५
घबड़ा मत जाना, उद्विग्न मत हो जाना, जल्दी ही भाग्य तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगा। विपत्ति तो उसकी आने की खबर है। वह पूर्व-सूचक है, संदेशवाहक है। पत्र है कि मैं आ रहा हूं।
तो जब विपत्ति आए तुम उत्तेजित मत होना, परेशान मत होना, क्योंकि जल्दी ही भाग्य आ रहा है। और जब भाग्य के फूल खिलें तब तुम सुख के कारण हर्षोन्मत्त मत हो जाना। क्योंकि भाग्य के पीछे ही फिर विपत्ति छिपी है। जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसा सुख के पीछे दुख है, दुख के पीछे सुख है, सफलता के पीछे असफलता है, असफलता के पीछे सफलता है। सब विरोधी जुड़े हैं।
तो न तो दुख तुम्हें उद्विग्न करे, और न सुख तुम्हें उत्तेजित करे। तुम दोनों ही स्थिति में साक्षी बने रहना। क्योंकि दोनों में से कोई भी ठहरने वाला नहीं है। जो भी आया है, चला जाएगा। जो भी आया है, जल्दी ही उसका विपरीत आएगा। तो यहां पकड़ने को कुछ भी नहीं। यहां किसी भी चीज के साथ मोह बना लेने की कोई सुविधा नहीं है। न तो तुम विपत्ति को हटाने की कोशिश करना; क्योंकि विपत्ति को हटाओगे तो भाग्य भी हट जाएगा जो उसके पीछे आ रहा था। न तुम भाग्य को पकड़ने की कोशिश करना; क्योंकि भाग्य को पकड़ोगे तो विपत्ति भी पकड़ में आ जाएगी जो कि उसके पीछे ही छिपी है। तो तुम करोगे क्या?
तुम साक्षी रहना। तुम देखते रहना। तुम सिर्फ हसना। क्योंकि तुम्हें दोनों दिखाई पड़ जाएं तो तुम हंसने लगोगे। किसी ने दी गाली तो तुम दुखी न होओगे, क्योंकि तुम जानते हो कि कहीं से कोई प्रशंसा शीघ्र ही मिलने वाली है। तुम गिर पड़े, घबड़ाना मत। क्योंकि जो ऊर्जा गिराती है वही उठा भी लेती है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम बीमार पड़े, तो जिस ऊर्जा से बीमारी आती है उसी ऊर्जा से स्वास्थ्य भी आता है। तुम एक ही काम कर सकते हो कि तुम देखते रहना। आने देना, जाने देना, और तुम देखते रहना।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम्हारे देखने की क्षमता सघन हो जाएगी, जैसे-जैसे तुम्हारा द्रष्टा जड़ें जमा लेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे कुछ भी नहीं छूता; तुम कमलवत हो गए। वर्षा भी हो जाती है, पानी गिरता भी है, तो भी छूता नहीं; अनछुआ गुजर जाता है। तुम अस्पर्शित रह जाते हो।
और अगर तुम यह न कर पाए तो तुम कभी भी सामान्य न हो पाओगे। 'जैसी स्थिति है, सामान्य कभी भी अस्तित्व में नहीं आएगा।'
तुम एक अति से दूसरी अति पर भटकते रहोगे। कभी दुख, कभी सुख; कभी छांव, कभी धूप; कभी दिन, कभी रात; कभी जन्म, कभी मृत्यु; बस तुम एक से दूसरे पर भटकते रहोगे। दोनों के बीच में छिपा है जीवन का राज।
'जैसी स्थिति है, सामान्य कभी अस्तित्व में नहीं होगा। लेकिन सामान्य शीघ्र ही पलट कर छलावा बन जाएगा, और मंगल पलट कर अमंगल हो जाएगा। इस हद तक मनुष्य-जाति भटक गई है।' ।
उसे यह भी पता नहीं है कि हम जो भी करते हैं वह हमेशा विपरीत में पलट जाता है। तुम सोचते हो, यह बड़ी मंगल घड़ी है और पकड़ लेते हो। जल्दी ही तुम पाते हो कि मंगल घड़ी तो कहीं खो गई, उसकी जगह सिर्फ अमंगल रह गया है। देखते हो प्रेम, पकड़ लेते हो; मुट्ठी खोल भी नहीं पाते कि पता चलता है, प्रेम तो कहीं तिरोहित हो गया, घृणा हाथ में रह गई है। आकर्षण खो जाता है, विकर्षण रह जाता है। पकड़ने गए थे सुबह को, सांझ हाथ में आती है।
लाओत्से कहता है, यह आखिरी भटकाव है। इससे ज्यादा और क्या भटकना होगा? लौटो पीछे, थोड़ा सम्हलो। और सम्हलने का एक ही मतलब है : द्वंद्व से बच जाओ। एक ही सम्हलना है कि जहां-जहां तुम्हें दो दिखाई पढ़ें, तुम उनमें से चुनाव मत करना; तुम चुनावरहित साक्षी हो जाना। मन तो कहेगा, सुख को पकड़ लो; इतने दिन तो प्रतीक्षा की, अब द्वार पर आया है, अब जाने मत दो। मन तो कहेगा, दुख को हटाओ। हटाओगे तो जल्दी हट जाएगा, अन्यथा न मालूम कितनी देर टिक जाए।
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