________________
शासन जितना कम हो उतना ही शाम
'जब शासन दक्ष और साफ-सुथरा होता है, तब प्रजा असंतुष्ट होती है। व्हेन दि गवर्नमेंट इज़ एफीशिएंट एंड स्मार्ट, इट्स पीपुल आर डिसकंटेंटेड।'
क्यों ऐसा हो जाता है? क्योंकि जब शासन बहुत दक्ष होता है, उतनी ही परतंत्रता बढ़ जाती है। जितना शासन कुशल होता है, उतनी ही गर्दन का फंदा कस जाता है। शासन की कुशलता का अर्थ ही यह है कि परतंत्रता बहुत कुशल हो गई और तुम्हें सब तरफ से बांध लेगी। तुम्हें पता भी न चले, इस तरह बांध लेगी; तुम्हारे होश में भी न आए, इस तरह बांध लेगी। तुम लगोगे स्वतंत्र, और तुम स्वतंत्र बिलकुल भी नहीं रहोगे।
तुम्हारी स्वतंत्रता करीब-करीब धोखा है। शासन ने तुम्हें सब तरफ से कस लिया है। और शासन ने सब इंतजाम कर रखा है कि अगर तुम जरा भी स्वतंत्रता की घोषणा करो तो शासन और कसता जाता है। तत्क्षण इमरजेंसी घोषित हो जाती है। अगर जनता जरा स्वतंत्रता की घोषणा करे तो तत्क्षण इमरजेंसी हो जाती है। सारा शासन लोकतंत्र को भूल जाता है और तानाशाही हो जाता है।
जितना दक्ष होगा शासन, उतने ही तुम्हारी आत्मा को बंधन होंगे। शासन की दक्षता नहीं चाहिए। शासन ऐसा होना चाहिए जैसा परमात्मा है-अदृश्य। न दिखाई पड़ता, न बीच में आता, न नियम और अनुशासन की घोषणा करता। पता ही नहीं चलता है। जिस दिन शासन ऐसा हो कि उसका कोई बोध न हो, दंश मालूम न पड़े, उसी दिन ठीक शासन उपलब्ध हुआ। और न केवल यह बाहरी शासन के संबंध में सही है, यह अनुशासन के संबंध में भी सही है।
तुम मेरे पास हो। मेरे पास बहुत से लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप अपने संन्यासी को ठीक-ठीक डिसिप्लिन, अनुशासन क्यों नहीं देते?
मैं कौन हूं किसी को अनुशासन देने वाला? और जो अनुशासन दूसरे के द्वारा दिया जाए वह तुम्हें कैसे मोक्ष की तरफ ले जाएगा? अनुशासन तो कम करना है, आत्मानुशासन बढ़ाना है। बाहर से थोपा गया शासन तो हटा लेना है; भीतर की प्रज्ञा ही एकमात्र अनुशासन बने, ऐसी स्थिति लानी है। मैं तुमसे न कहूंगा, कब तुम उठो, कब तुम बैठो, कब तुम सोओ, क्या तुम खाओ। ये मूढ़ता की बातें मैं तुमसे न करूंगा। मैं तो सिर्फ तुम्हारे परिशुद्ध चैतन्य को तुम कैसे खोज लो, उसकी विधि तुम्हें दूंगा। तुम्हारी चेतना फिर तुम्हारे अनुशासन को बनाएगी।
लेकिन गुरु भी शासकों की भांति हैं। वे भी बांध लेते हैं। वे रत्ती-रत्ती तुम्हारी फिक्र रखते हैं कि तुम क्या खाते, क्या पीते, कब सोते, कब उठते। गुरु जैसे पुलिसवाले हैं। और पुलिसवाला तो उतना गहरा नहीं जाता जितने गुरु जाते हैं। क्योंकि पुलिसवाले की उतनी समझ भी नहीं है गहरे जाने की। गुरु तो बिलकुल भीतर तुम्हें हर चीज में बांध लेता है। तुम्हारी मुक्ति के नाम पर गुरुओं ने तुम्हारे लिए कारागृह खड़े कर रखे हैं। तुम मुक्त नहीं होते, गुलाम हो जाते हो। तुम आत्मवान नहीं होते, आत्मा को खो देते हो। आशा तुम यह रखते हो कि शायद इस अनुशासन से आत्मा मिलेगी। लेकिन जो पहले ही कदम पर परतंत्रता है वह अंतिम समय में कैसे स्वतंत्रता हो जाएगी? स्वतंत्रता पहले कदम पर भी स्वतंत्रता है, और अंतिम कदम पर भी। जो काटनी है फसल, उसके ही बीज बोने होंगे।
तो मैं स्वतंत्रता के बीज बोता हूं। मैं तुम्हें पूरा स्वतंत्र करता हूं; तुम्हारे बोध पर ही तुम्हें छोड़ता हूं। तुम्हारा बोध भर जगे। और तुम अपने बोध से ही अपने जीवन को अनुशासन देना। तो ही किसी दिन संभव है कि तुम्हें मुक्ति की झलक आ सके।
'विपत्ति भाग्य के लिए छायादार रास्ता है, और भाग्य विपत्ति के लिए ओट है।' लाओत्से कहता है कि सदा विपरीत जुड़े हुए हैं। इसे जिसने देख लिया उसने जीवन की कुंजी पा ली।
जब विपत्ति आए तो तुम घबड़ाना मत, क्योंकि विपत्ति के ही छाएदार रास्ते से भाग्य भी यात्रा करता है। विपत्ति के पीछे ही भाग्य आता है। विपत्ति के पीछे ही सुख, महासुख की संभावना छिपी है। जब विपत्ति आए तो तुम
231