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आत्म-बान ही सच्चा ज्ञान है
करीब-करीब ऐसा हमने किया है प्रकृति के साथ। और जहां प्रकृति के साथ हमने बहुत छेड़खानी की है वहां सब चीजें अस्तव्यस्त हो गई हैं।
पश्चिम में बड़ा आंदोलन है इकोलाजी का। पश्चिम के विचारशील लोग कह रहे हैं वैज्ञानिकों को कि अब तुम कृपा करो, अब और सुधार न करो। वैसे ही तुमने सब नष्ट कर दिया है। क्योंकि सब चीजें गुंथी हैं। __हमने जंगल काट डाले, अब वर्षा नहीं होती। अब वर्षा नहीं होती है तो अकाल पड़ता है। हम जंगल काटे चले जाते हैं—बिना यह फिक्र किए कि बादल वृक्षों से आकर्षित होते हैं। उनका वृक्षों से लगाव है। वे तुम्हारी वजह से नहीं बरसते। तुम्हारी खोपड़ी में उनकी तरफ कोई खिंचाव नहीं है। वे वृक्षों से आकर्षित होते हैं। तुमने वृक्ष काट डाले। वृक्षों की जड़ें जमीन को सम्हाले हुए हैं। वृक्ष कट जाते हैं, जड़ें हट जाती हैं; जमीन बिखरने लगती है, रेगिस्तान हो जाते हैं। वृक्ष और पृथ्वी के बीच कोई गहरा नाता है। जहां से वृक्ष हटे वहां रेगिस्तान हो जाएगा। वर्षा न होगी और जमीन को पकड़ने वाली जड़ें न रह जाएंगी, जमीन बिखरने लगेगी, सायल इरोजन हो जाएगा।
तुम एक चीज को सुधारते हो, तत्क्षण हजार चीजें प्रभावित हो जाती हैं। देर अबेर तुम्हें पता लगेगा कि यह तो मुश्किल हो गई। लाभ कुछ होते दिखाई नहीं पड़ता। आदमी सब तरफ से मिटता हुआ मालूम पड़ता है। और विज्ञान कोशिश किए जा रहा है सुधारने की। उसके सब सुधार में मौत हुई जा रही है। आदमी इतनी अड़चन में कभी न था। यह ज्ञानियों के हाथ में पड़ गया है। और उन्होंने आदमी को बड़ी मुसीबत में डाल दिया है। और पृथ्वी ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकती, अगर लाओत्से की न सुनी गई। ज्यादा से ज्यादा इस सदी के पूरे होते तक आदमी जमीन पर रह सकता है बस ज्यादा से ज्यादा पच्चीस साल और अगर वैज्ञानिक नहीं सुनता है लाओत्से जैसे ज्ञानियों की कि रुक जाओ, ठहर जाओ, मत सुधारो, रहने दो, जैसा है परम है, वही ठीक है। तुम्हारी जानकारी अधूरी है, तुम पूरे को नहीं जानते। तुम एक चीज को बदलते हो, पच्चीस चीजें प्रभावित होती हैं जिनका तुम्हें खयाल भी नहीं है।
हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, तब उनको अंदाज नहीं था कि कितना विध्वंस होगा। किसी को अंदाज नहीं था, इतना भयंकर विध्वंस हुआ। तब किसी को यह अंदाज नहीं था, वैज्ञानिकों को, कि यह विध्वंस सदियों तक चलेगा। क्योंकि जो रेडियोधर्मी किरणें पैदा हुईं एटम बम के गिराने से, उनको सागर की मछलियां पी गईं। क्योंकि सागर के पानी पर जाकर वे रेडियोधर्मी किरणें बैठ गईं। धीरे-धीरे वे डूब गईं सागर में, मछलियां उनको पी गईं। मछलियों को जिन्होंने खाया उनके भीतर रेडियोधर्मी तत्व पहुंच गए। उनके बच्चे पैदा हुए, उनके बच्चे अपंग हैं। उनके बच्चों की हड्डियों में रेडियोधर्मी तत्व पहुंच गए। अब वे बच्चे बच्चे पैदा करेंगे।
. अब यह हजारों साल तक वह जो यूटम गिरा था उन्नीस सौ पैंतालीस में हजारों साल तक, अगर आदमियत बचती है, तो उसका दुष्परिणाम भोगेगी। इसको अब रोकने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि फलों में भी चला गया वह। गायों के थनों में चला गया। गायों ने घास खाई-घास पर बैठ गया रेडियोधर्मी तत्व-गायों ने घास खाई, घास से दूध आया, दूध तुमने पीया।
तो यह मत सोचना कि मछली अपन खाते ही नहीं! कि हम शाकाहारी हैं! घास गाय खाएगी, दूध तुम पीओगे। सांस तो लोगे? हवा में रेडियोधर्मी तत्व हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि न्यूयार्क, लंदन और टोकियो की हवा में इतने विषाक्त द्रव्य हैं कि यह हैरानी की बात है कि आदमी जिंदा कैसे है! होना नहीं चाहिए। इम्यून हो गया है, इसलिए जिंदा है। लेकिन जहर तो प्रतिपल पहुंच रहा है। जहर भीतर उतर रहा है।
तुमने खयाल किया होगा, डी डी टी छिड़को तो मच्छर पहली दफा मरते हैं, दूसरी दफा उतने नहीं मरते, तीसरी दफा बिलकुल नहीं मरते। चौथी-पांचवीं दफा वे फिक्र ही नहीं करते, तुम छिड़कते रहो डी डी टी। वे इम्यून हो
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