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ताओ उपनिषद भाग ५
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पागलखाने न पहुंचा। उसने ठीक आखिरी तक यात्रा न की, पहले ही रुक गया थोड़ा। थोड़ा और जाता तो पागलखाने पहुंच ही जाता ।
ऐसा हुआ। एक बार एक आदमी एक विश्वविद्यालय की तलाश में गया था। अजनबी था उस शहर में। और उसने जाकर एक द्वार पर दस्तक दी और पूछा कि क्या यह जो भवन है विश्वविद्यालय का है? उस द्वारपाल ने कहा, विश्वविद्यालय का तो नहीं है, लेकिन कोई फर्क नहीं है; आओ, चाहो तो भीतर आ जाओ । विश्वविद्यालय का भवन तो सामने वाला भवन है। यह तो पागलखाना है। लेकिन फर्क कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने कहा, फर्क नहीं है ? क्या तुम कहते हो! मजाक करते हो? उसने कहा, नहीं, एक फर्क है। यहां से कभी-कभी कोई लोग सुधर कर भी निकल जाते हैं, वहां से कभी नहीं निकलते ।
विश्वविद्यालय से लोग करीब-करीब विक्षिप्तता अर्जित करके लौटते हैं, पागलपन लेकर लौटते हैं। क्योंकि विचार का अतिशय हो जाना तनावपूर्ण है। और जब विचार इतना खिंच जाता है तो टूटने की घड़ी करीब आ जाती है। जितना तुम सोचोगे उतना ही उद्विग्न होते जाओगे। उतना ही तनाव, उतना ही खिंचाव भीतर, उतना ही विश्राम मुश्किल हो जाएगा। विचार तो विराम जानता ही नहीं, चलता ही जाता है। तुम रहो कि जाओ, तुम बचो कि न बचो, विचार का अपना ही तंतु-जाल है।
लोग मुझसे कहते हैं, शांत होना है, निर्विचार होना है। और बिना जाने कहते हैं कि वे क्या कह रहे हैं। क्योंकि अगर निर्विचार होना हो तो ज्ञान की दौड़ छोड़ देनी होगी। अगर निर्विचार होना हो तो ज्ञान का संग्रह छोड़ देना होगा। अगर निर्विचार होना हो तो भीतर जो पुराना संग्रह है, उसे भी उलीच कर खाली कर देना होगा ।
'ताओ का विद्यार्थी दिन ब दिन खोने का आयोजन करता है। निरंतर खोने से व्यक्ति निष्क्रियता को उपलब्ध होता है, अहस्तक्षेप को उपलब्ध होता है। बाइ कंटिन्यूअल लूजिंग वन रीचेज डूइंग नथिंग – लैसे- फेअर । '
फ्रांसिसी भाषा का यह शब्द लैसे- फेअर बड़ा बहुमूल्य है। इसका अर्थ होता है : लेट इट बी; जो है, जैसा है, ठीक है। लैसे- फेअर का अर्थ है : जो है, जैसा है, ठीक है; तुम हस्तक्षेप न करो। तुम सुधारने की कोशिश न करो। कुछ बिगड़ा ही हुआ नहीं है; कृपा करके तुम सुधारना भर मत । क्योंकि तुम्हारा जहां हाथ लगा, वहीं चीजें बिगड़ जाती हैं। प्रकृति अपनी परिपूर्णता में चल रही है। यहां कुछ कमी नहीं है। तुम कृपा करके थोड़ी साज-संवार मत कर देना । तुम कुछ सुधार मत देना।
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर लौट रहा था । सांझ का धुंधलका था। और मोटर साइकिल पर दो बैठे हुए आदमी एक वृक्ष से टकरा गए थे। अकेला नसरुद्दीन ही वहां था, वह उनके पास गया। एक तो मर ही चुका था। लेकिन दूसरे को नसरुद्दीन ने सहायता की। नसरुद्दीन को लगा कि चोट खाने से उसका सिर उलटा हो गया है; पीठ की तरफ मुंह हो गया है। तो उसने बड़ी मेहनत से घुमा-फिरा कर — वह आदमी चीखा भी, चिल्लाया भी— उसका बिलकुल ठीक सिर कर दिया, जिस तरफ होना चाहिए था। तभी पुलिस भी आ गई। और पुलिस ने पूछा कि क्या ये दोनों आदमी मर चुके ?
नसरुद्दीन ने कहा, एक तो पहले ही मरा हुआ था; दूसरे को मैंने सुधारने की बड़ी कोशिश की। पहले तो इसमें से चीख-पुकार निकलती थी, फिर पीछे वह भी बंद हो गई।
गौर से देखा तो पाया कि ठंडी सांझ थी और वह जो आदमी मोटर साइकिल के पीछे बैठा था, उसने उलटा कोट पहन रखा था, ताकि आगे से सीने पर हवा न लगे। और उलटा कोट देख कर नसरुद्दीन ने समझा कि इसका सिर उलटा हो गया है, तो उसने घुमा कर उसका सिर सीधा कर दिया। उसी में वे मारे गए। वे जिंदा थे, न सुधारे जाते तो बच जाते।