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आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान
ही स्वतंत्रता चाहिए; उसी को हम मोक्ष कहते हैं। जिसने भीतर के आकाश को पा लिया और जिसकी बदलियां सब समाप्त हो गईं, वह मुक्त, उसने मोक्ष को उपलब्ध कर लिया। अब कोई बंधन न रहे। अब उसके पंखों को रोकने वाला कोई कहीं नहीं है। अब दूर अनंत तक भी वह उड़े तो भी सीमा न आएगी। अब वह असीम का मालिक हुआ।
जानकारी से तुम सीमित के मालिक हो जाओगे। ज्ञान से तुम सीमित को जान लोगे। लाओत्से यह कह रहा है, अज्ञान से! लाओत्से अज्ञान शब्द का उपयोग नहीं कर रहा है, लेकिन मैं करना चाहूंगा। अगर ज्ञान से सीमित मिलता है तो अज्ञान से असीम मिलता है। लेकिन तुम कहोगे, तो क्या अज्ञानी उसे पा लेते हैं? हां, अज्ञानी उसे पा लेते हैं। लेकिन जिन्हें तुम अज्ञानी समझते हो वे अज्ञानी नहीं हैं। वे छोटे ज्ञानी होंगे, वे भी ज्ञानी हैं।
तुम किसको अज्ञानी कहते हो? जो आदमी मैट्रिक पास है वह गैर मैट्रिक पास को अज्ञानी समझता है। फासला उनमें ज्ञान और अज्ञान का नहीं है। ज्ञान का ही है; एक थोड़ा कम, एक थोड़ा ज्यादा। पढ़ा-लिखा गैर पढ़े-लिखे को अज्ञानी समझता है। शहर में रहने वाला गांव में रहने वाले को अज्ञानी समझता है। इसलिए गांव के आदमी को हम गंवार कहते हैं; गंवार यानी गांव का रहने वाला। गंवार शब्द ही का मतलब होता है गांव का रहने वाला। जो आदमी युनिवर्सिटी की आखिरी डिग्री लेकर लौटता है वह अपने बाप को भी, अगर वह गैर पढ़ा-लिखा हो, तो अज्ञानी समझता है।
जिन्हें तुम अज्ञानी कहते हो वे अज्ञानी नहीं हैं; तुमसे कम ज्ञानी हैं। मगर सब ज्ञान की यात्रा पर ही खड़े हैं। अज्ञानी तो कभी-कभी हुए हैं, कोई बुद्ध, कोई लाओत्से, कोई कबीर। अज्ञानी का यह अर्थ है कि उन्होंने, जिसे तुम ज्ञान कहते हो, वह सब छोड़ दिया। जिसे तुमने ज्ञान की तरह जाना था, जिनको तुमने ज्ञान की उपाधियां समझा था, अज्ञानी वह है जिसने उन्हें वस्तुतः उपाधि ही समझा, बीमारी समझा, और छोड़ दिया। परम अज्ञान में लीन हो गए।
इसलिए तो सुकरात कहता है कि जब तुम यह जान लोगे कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, उसी दिन ज्ञान के द्वार खुलेंगे। अज्ञानी होना बड़ा कठिन है। क्योंकि अज्ञानी होने का अर्थ है निरहंकारी होना। अहंकार तो दावा करता है ज्ञान का। अज्ञानी अपने को स्वीकार कर लेने का अर्थ है कि मैं हूं ही नहीं; मेरी कोई क्षमता नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं; मेरा कोई बल नहीं, कोई शक्ति नहीं। गहन अंधकार और गहन अंधकार की स्वीकृति।
जैसे ही किसी ने अपने भीतर के गहन अंधकार की स्वीकृति की, इसी स्वीकृति से प्रकाश का जन्म होता है। अंधकार तो है ही नहीं। तुमने उसे देखा नहीं, माना नहीं, भीतर झांका नहीं, इसलिए अंधकार मालूम हो रहा है। और तुम क्षुद्र ज्ञान को ज्ञान समझते रहे, इसलिए वास्तविक ज्ञान तुम्हें अज्ञान जैसा मालूम हो रहा है। जब क्षुद्र को तुम छोड़ोगे, तब तुम पाओगे कि यह अज्ञान ही, क्षुद्र को छोड़ने से जो खाली जगह बनती है, यह रिक्त स्थान ही उस परिपूर्ण का आवास है। यह अज्ञान ही परम ज्ञान है।
'ताओ का विद्यार्थी दिन ब दिन खोने का आयोजन करता है।'
वह खोता है ज्ञान को, छोड़ता है जानने को, धीरे-धीरे न जानने में थिर होता है। जैसे ही तुम न जानने में थिर हो जाओगे, कैसे विचार उठेंगे वहां? विचार तो उठते हैं तुम्हारे ज्ञान के कारण। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि शांति नहीं, विचार ही विचार चलते हैं। और उनसे अगर मैं कहूं अज्ञानी हो जाओ, तो वे हंसते हैं। वे कहते हैं, आप भी कैसी बात सिखाते हैं? ज्ञान तो बड़ा जरूरी है।
ज्ञान जरूरी है; फिर विचार से परेशान क्यों हो रहे हो? अगर ज्ञान जरूरी है तो विचार तो चलेंगे ही। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ेगा, विचार और ज्यादा चलेंगे। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ेगा, फिर रात सो भी न सकोगे; विचार ही विचार चलेंगे। जागोगे तो, सोओगे तो, ज्ञान बढ़ता जाएगा; तुम पागल होते जाओगे। इसलिए पश्चिम में वे बड़ा दार्शनिक उसी को कहते हैं जो एकाध दफे पागलखाने हो आए। दार्शनिक में कुछ न कुछ कमी रह गई, अगर वह