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________________ आदर्श योग है, सामान्य व स्वयं छोना स्वास्थ्य अगर तुम गौर से देखो तो सारी बात कहां से पैदा हो रही है? क्योंकि तुमने कानून बनाया। इसका यह मतलब नहीं है कि कानून बिलकुल न हो तो चोर बिलकुल न होंगे। न्यून रह जाएंगे। अति न्यून रह जाएंगे। और अगर कानून बिलकुल ही खो जाए और जिस वजह से हम कानून बनाते हैं वह वजह मिटा दी जाए-जो कि मिट सकती है, जिसमें कोई अड़चन नहीं है। . अभी कोई पानी नहीं चुराता, क्योंकि पानी खुला है, कोई भी ले सकता है। और अभी पानी के चोर नहीं हैं, न पानी के चोरों के वकील हैं, न अदालतें हैं। क्योंकि पानी सुलभ है, सभी को उपलब्ध है। और सबकी जरूरत है। लेकिन मरुस्थल में पानी चोरी होने लगता है। और मरुस्थल में कानून बनाना पड़ता है कि कोई पानी न चुरा ले।। तुम्हारी जिंदगी में जरूर बहुत से मरुस्थल हैं, जिनके कारण चोरी-बेईमानी है। उनको मिटाओ मरुस्थलों को। कानूनों से वे नहीं मिटते। कानूनों से चोर बढ़ते हैं, मरुस्थल बढ़ते हैं। करीब-करीब सारी दुनिया चोर होने की हालत में आ गई है। इस वक्त ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो किसी न किसी तरह की चोरी न कर रहा हो। टैक्स बचा रहा होगा; टिकट न दे रहा होगा ट्रेन में; कोई और तरकीब लगा रहा होगा। और मैं कहता हूं कि इसमें लोग जिम्मेवार नहीं हैं। लोगों को जीना है; तुमने जीना ही असंभव कर दिया है। तुमने सब तरफ से उपद्रव बांध दिया है। और उपद्रव इतना ज्यादा हो गया है कि उसे बिना तोड़े कोई जी नहीं सकता। और जब कोई तोड़ता है तो वह चोर हो जाता है। और जब तुम एक चोरी कर लेते हो तो तुम दूसरे के लिए तैयार हो जाते हो। फिर धीरे-धीरे चोरी सुलभ हो जाती है। वह जीवन का ढंग हो जाता है। फिर तुम्हें खयाल भी नहीं रहता कि कुछ गलत कर रहे हैं। कोई गलत का सवाल ही नहीं है। तुम अगर इनकम टैक्स बचा रहे हो तो कोई गलत का सवाल नहीं है। तुम भूल ही गए हो कि इसमें कुछ गलत है। चोरी बढ़ती है, जितने कानून की जकड़ बढ़ती है। लाओत्से कहता है, 'इसलिए संत कहते हैं, मैं कुछ नहीं करता हूं और लोग आप ही सुधर जाते हैं।' एक और ढंग है। शासक का ढंग है, उससे संसार भ्रष्ट हुआ। एक संत का ढंग है जिसका उपयोग भी कभी नहीं हुआ। कभी छोटे-छोटे कबीलों में उपयोग हुआ है। बुद्ध के पास कुछ साधु इकट्ठे हो गए, उनके जीवन में एक उपयोग हुआ। लाओत्से के पास कुछ लोग इकट्ठे हो गए। छोटे-छोटे समुदायों में प्रयोग हुआ है। लेकिन जहां भी प्रयोग हुआ है, अनूठा है। संत कुछ कहता नहीं...। 'मैं कुछ नहीं करता, लोग आप ही सुधर जाते हैं।' संत के होने में, संत के होने मात्र में, मौजूदगी में कोई बात है जो लोगों को बदलती है। . 'मैं मौन पसंद करता हूं, लोग अपने आप पुण्यवान हो जाते हैं। मैं कोई व्यवसाय नहीं करता और लोग आप ही समृद्ध होते हैं। मेरी कोई कामना नहीं है, लोग आप ही सरल और ईमानदार हैं।' संत के होने का ढंग संक्रामक है। वह तुम्हें नियम नहीं देता, न तुम्हें कोई अनुशासन देता है। वह तुम्हें सिर्फ अपनी मौजूदगी देता है। उसकी मौजूदगी से तुम्हारे जीवन में नियम आने शुरू होते हैं। उन नियम के निर्धाता तुम होते हो। एक अनुशासन पैदा होता है जो भीतरी है, जो तुम्हारा बनाया हुआ है, जो किसी और के निषेध पर खड़ा नहीं है। वह तुम्हें कोई आज्ञा नहीं देता, वह तुम्हें कोई आदेश नहीं देता। उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर एक आज्ञा बन जाती है। उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर एक आग बन जाती है। उसकी मौजूदगी तुम्हें एक नई दिशा में इंगित देने लगती है, और तुम चल पड़ते हो। वह तुम्हें चलाता नहीं। उसकी कोई कामना नहीं है। और तुम रूपांतरित हो जाते हो। संसार तब तक भ्रष्ट रहेगा जब तक शासक संसार का केंद्र है। जब संत संसार का केंद्र होंगे, और संत शासक नहीं हैं, क्योंकि वे अनुशासन देते ही नहीं। संत का होना ही, उसके होने का स्वाद ऐसा है कि तुम्हें उसका स्वाद एक बार लग जाए कि फिर तुम वही न रह सकोगे जो तुम थे। उसकी सुगंध ऐसी है कि तुम्हारे नासापुट एक 219/
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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