SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श रोग है, सामान्य व स्वयं होना स्वास्थ्य 213 प्रतिमा छिपी थी। जरा छेनी लेकर साफ करने की बात थी और प्रतिमा उघड़ आती। अगर तुम बड़े मूर्तिकारों से पूछो तो वे यह नहीं कहते कि हम मूर्ति बनाते हैं, वे कहते हैं, मूर्ति तो छिपी ही होती है, किसी-किसी पत्थर में हमें दिखाई पड़ जाती है कि इसमें छिपी है। बस, फिर हम जो उसमें व्यर्थ है उसको छांट देते हैं, जो आवरण है उसको हटा देते मूर्ति तो थी ही। सिर्फ आवरण को हटाने की कुशलता है। कूड़े-कर्कट को अलग कर देते हैं, मूर्ति प्रकट हो जाती है। हम मूर्ति बनाते थोड़े ही हैं। कभी किसी ने कोई मूर्ति बनाई है ! इसलिए मूर्तिकार जाता है पहाड़ों में, पत्थरों को देखता है— किस पत्थर में छिपी है ? जब तुम मेरे पास आते हो तो मैं भी तुम्हें ऐसे ही देखता हूं। क्योंकि तुम अनगढ़ पत्थर हो । देखता हूं, मूर्ति छिपी है, थोड़ा सा अनगढ़पन है। थोड़ा यहां-वहां छेनी के लगाने की जरूरत है; जल्दी ही रूप उघड़ आएगा । मिटाना कुछ भी नहीं है; संवारना है, सजाना है, ठीक दिशा देनी है। और ठीक दिशा सामान्य से मिलती है। तुम सामान्य होने की आकांक्षा करो। असामान्य होने से तुम रुग्ण हो । कहता है लाओत्से, 'युद्ध हो तो ठीक, चलो, असामान्य अचरज भरी युक्तियों से लड़ो।' क्योंकि युद्ध तो गलत है ही। तो उसमें अगर गलत चलता हो तो चले, लेकिन कम से कम जीवन के शांत क्षणों में तो गलत को मत चलाओ। युद्ध तो गलत है, इसलिए गलत से ही चलता है। रोमन सम्राट एक तरकीब करते थे । उनका सिंहासन दीवार के पीछे एक यंत्र से जुड़ा हुआ था। जब सम्राट उस पर बैठता था, सिंहासन ऊपर उठ जाता था। चमत्कृत हो जाते थे लोग कि सम्राट कोई साधारण पृथ्वी का आदमी नहीं है । गुरुत्वाकर्षण का भी कोई प्रभाव नहीं सम्राट पर बैठते ही सिंहासन ऊपर उठ जाता है। यह तो बहुत बाद में पता चला लोगों को, जब सम्राट खो गए, कि दीवार के पीछे यंत्र लगा रखा था जिसको एक आदमी चलाता था। मगर इसका बड़ा प्रभाव था । रोमन सम्राट जब वर्ष के प्रथम दिन पर अपनी परेड का निरीक्षण करता था तो इस तरह का इंतजाम किया था कि दस हजार सैनिक लाखों सैनिकों जैसे मालूम पड़ें। क्योंकि सैनिक सामने से गुजरते और वे ही लौट कर फिर पीछे से पंक्ति में जुड़ जाते। तो जो दूसरे राजाओं के राजदूत थे या मित्र राजा थे वे खड़े होकर जब देखते परेड तो उनकी छाती बैठ जाती कि इस सम्राट से झगड़ना खतरे से खाली नहीं है। इतनी भयंकर फौज-फांटा ! इतनी तोपें ! बस उनको देख कर ही उनके प्राण ठंडे हो जाते थे । था कुछ भी नहीं। थोड़े से सैनिक थे, थोड़ी सी तोपें थीं, लेकिन उस्तादी यह थी कि उनको फिर वापस - एक गोल वर्तुल में घूमता था पूरा का पूरा मामला। और सैनिकों की शक्लें तो होती नहीं, इसलिए तुम पहचान भी नहीं सकते कि ये सैनिक वर्दी होती है। सैनिक यानी वर्दी । शक्ल तो होती नहीं । पहचानना बिलकुल मुश्किल है कि ये वे ही आदमी आ रहे हैं। दूसरे राजा हतप्रभ हो जाते थे। लाओत्से कहता है, युद्ध में तुम चालाकियों का उपयोग करो, अचरज भरी बातों का, असामान्य का, समझ में आता है। क्योंकि युद्ध तो बीमारी ही है। वहां और बीमारियां भी चलेंगी। लेकिन कम से कम जीवन के शांत क्षणों में, सामान्य जीवन में तो अचरज को, विशिष्ट को, असामान्य को मत लाओ। 'संसार को बिना कुछ किए जीतो ।' करके जीता तो क्या जीता? क्योंकि करके जो जीत मिलती है वह जीत होती ही नहीं। तुम जबरदस्ती किसी को भी हरा नहीं सकते । हरा सकते हो, उसकी छाती पर बैठ सकते हो, लेकिन बस ऊपर ही ऊपर रहोगे । भीतर वह आदमी बिना हारा है, उसका हृदय नहीं हारता । तुम गर्दन काट सकते हो, लेकिन वह आदमी बिना हारा मरेगा । करके कभी किसी ने किसी को जीता है? सिर्फ प्रेम जीतता है। और प्रेम कोई कृत्य नहीं है, भाव की दशा है। प्रेम कुछ करना नहीं है, प्रेम तो एक मनोदशा है, ए स्टेट ऑफ बीइंग है, एक होने का ढंग है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy