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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ . और जिसको यह भरोसा आ गया कि मैं महागर्त में हूं, उसके उठने के उपाय बंद हो गए। कौन उठेगा अब जब तुम्हीं गिर पड़े, और जब तुम्हीं ने हताशा ले ली, और जब तुमने आशा छोड़ दी। अब तुम्हारा आकाश दूर आकाश का तारा है जिसको तुम अपने गड्ढे में पड़े हुए देखते रहते हो। गड्डा असलियत है, आकाश का तारा तो बहुत दूर है। और तुम्हें पता नहीं है, जहां तारे दिखाई पड़ते हैं वहां होते नहीं। वहां कभी थे वे; क्योंकि प्रकाश को आने में बड़ा समय लगता है। जो निकटतम तारा है जमीन के उससे आने में चार साल लगते हैं। चार साल पहले वह तारा वहां था, अब है नहीं। तो रात तो तुम्हारी बिलकुल झूठी है। जो तारे तुम्हें दिखाई पड़ते हैं बिलकुल झूठे हैं। वहां कोई तारा नहीं है जहां तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, वहां वह कभी था। चार साल में यह भी हो सकता है, वह नष्ट हो गया हो। लेकिन चार साल तक दिखाई पड़ता रहेगा, क्योंकि जब तक रोशनी आती रहेगी। चार साल तक का फासला रहेगा। और यह तो निकटतम तारा है। फिर दूर के तारे हैं, जिनसे करोड़ वर्ष में रोशनी आती है, दस करोड़ वर्ष में रोशनी आती है, अरब वर्ष में रोशनी आती है। और ऐसे तारे हैं जिनकी रोशनी उस दिन चली थी जब पृथ्वी नहीं बनी थी और अभी तक पहुंची नहीं है। वे तारे कहां खो गए होंगे, कुछ पता नहीं। लेकिन दिखाई पड़ते हैं। तुम्हारे अतीत के महावीर, बुद्ध, कृष्ण, बस ऐसे ही तारे हैं जो कभी थे। और तुम अपने गड्ढे में पड़े हो और दूर तारों पर आंखें लगाए हो जो हैं ही नहीं। तुम्हारा गड्डा तुम्हारी असलियत है। और उस असलियत को तुम जितना ढांकना चाहते हो उतने ही आदर्श की तरफ देखते हो। आदर्श की तरफ देखने में एक सुविधा है, अपना नरक नहीं दिखाई पड़ता। पड़े रहते हो लोभ में, पड़े रहते हो कामवासना में; ब्रह्मचर्य के तारे पर आंखें लगाए रहते हो। तो जो है असलियत वह दिखाई नहीं पड़ती। और ध्यान रखना, जो है उसे देखना पड़ेगा; तभी किसी दिन ब्रह्मचर्य का जन्म होगा। तुम्हारा आदर्श तुम्हारा पलायन है, एस्केप है, बचने की तरकीब है। कब तक बचे रहोगे? तारे को देखते पड़े रहोगे, गड्डा नहीं मिट जाएगा। तारे को देखने से कभी गड्डा नहीं मिटा है। गड्ढे को ही देखना पड़ेगा। उठना पड़ेगा, चलना पड़ेगा। तारे को तो छोड़ो; असलियत को, यथार्थ को पकड़ो। क्योंकि यथार्थ में ही सत्य छिपा है; तुम्हारी कल्पनाओं, मनोवांछाओं में नहीं, तुम्हारे सपनों में नहीं। क्रोधी आदमी अक्सर अहिंसा का आदर्श बना लेता है। उससे सुविधा हो जाती है। क्रोध को कहता है, है, माना। लेकिन अहिंसा की कोशिश कर रहा हूं; देखो, पानी छान कर पीता हूं, रात भोजन नहीं करता। धीरे-धीरे सधेगा। कोई जल्दी तो हो भी नहीं सकती; लंबा सवाल है, जन्मों-जन्मों की बात है। कभी न कभी अहिंसा को उपलब्ध हो जाऊंगा। आज तो क्रोध करूंगा, क्योंकि अभी तो अहिंसा सधी नहीं है। कभी! भविष्य में टालता है। और आज जो कर रहा है उसी में से भविष्य निकलेगा; वह जो कह रहा है उसमें से नहीं। इसे तुम ठीक से समझ लेना, बारीकी से। तुम जो कर रहे हो उसी से तुम्हारा भविष्य निकलेगा। आज क्रोध कर रहे हो और सोच रहे हो, कल अहिंसा! तो अहिंसा तुम्हें राहत दे रही है। कंसोलेशन है, सांत्वना है। कोई फिक्र नहीं; तुम्हारा अहंकार कहता है कि मान लिया क्रोध कर रहे हो, क्योंकि मजबूरी है, जरूरत है, वैसे अहिंसा तुम्हारा लक्ष्य है। तुम आदमी तो बड़े गजब के हो। अभी तुम्हारा वक्त नहीं आया; तुम तो छिपे हुए प्रकाश हो; कल प्रकट होगा। तो इससे तुम्हें आज क्रोध करने में सुविधा मिल जाती है। अहिंसा कल पर टल गई। आज खाली बचा, क्रोध से भर लो। दिल खोल कर भर लो; क्योंकि कल तो अहिंसा हो जानी है। कल तो ब्रह्मचर्य आ जाएगा; आज आखिरी दिन और है, भोग कर लो। तुम्हारा ब्रह्मचर्य तुम्हें भोगी बनाता है। क्योंकि आदर्श तुम्हारी असलियत छिपाता है। . तुम छोड़ो आदर्शों को। तुम सामान्य सत्य को पहचानो। क्या स्थिति है? और उसी स्थिति को जीओ सजगता से। आदर्श नहीं; जागरूकता! भविष्य नहीं; वर्तमान! यह तो क्रांति घटित होगी। और जब तुम आज को बदलोगे बोधपूर्वक, समझपूर्वक। क्योंकि समझ ही एकमात्र बदलाहट है, और कोई बदलाहट नहीं। समझ ही एकमात्र मुक्ति 210
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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