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आदर्श लोग है, सामान्य व स्वयं होबा स्वास्थ्य
दाएं स्वर से ही सांस लेते हुए उठना! जो बाएं स्वर से सांस लेता उठा, वह पकड़ा जाएगा; क्योंकि दाएं स्वर से ही सांस लेना सुबह अच्छा है। अब फंसे तुम। अगर सुबह तुम बाएं स्वर से सांस लेते उठ गए, अदालत में पहुंचाए गए-क्यों तुमने बाएं स्वर से सांस ली? तो तुम कृत्रिम उपाय करोगे, बाएं स्वर में रुई लगा कर सोओगे, ताकि सुबह कुछ भी हो दाएं स्वर से सांस चले।
. फिर कुछ ऐसे होंगे जो इस बात को व्यर्थ मानेंगे कि क्या फिजूल है! हम सांस भी नहीं ले सकते? सांस हमारी स्वतंत्रता है। अगर उनके दाएं स्वर से भी सांस चल रही होगी तो वे बाएं से लेते हुए उठेंगे। क्योंकि कानून को तोड़ने में भी एक रस है, एक बगावत है, एक विद्रोह है। और अहंकार कानून को तोड़ने में बड़ा रस लेता है। अपराधी पैदा होते हैं, डाकू पैदा होते हैं, चोर पैदा होते हैं। और इन सबके पैदा होने के पीछे बुनियादी कारण यह है कि तुम ऐसे असंभव आदर्श सिर पर खड़े कर देते हो जो पूरे नहीं किए जा सकते।
गांधी ने आश्रम में आदर्श बना दिया ब्रह्मचर्य का, सब ब्रह्मचर्य का पालन करें। गांधी के सेक्रेटरी खुद न कर पाए, प्यारेलाल। और बुढ़ापे में गांधी को खुद अपने ब्रह्मचर्य पर संदेह होने लगा था। और संदेह उनका इतना बढ़ गया-बढ़ेगा ही, क्योंकि ऊपर से थोपा हुआ आदर्श था—कि एक युवती को नग्न लेकर एक वर्ष तक वे सोते रहे अंतिम दिनों में, सिर्फ यह जांचने के लिए मेरा ब्रह्मचर्य सच्चा है या नहीं।
लेकिन जब ब्रह्मचर्य सच्चा होता है तो जांचने का सवाल ही नहीं उठता। जांचने का खयाल ही बताता है कि कोई चीज ऊपर से थोप ली है, पक्का भरोसा खुद भी नहीं आ रहा है। जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है तो तुम्हें किसी से पूछना पड़ता है? जांच करनी पड़ती है? जांच इसलिए करवा सकते हो तुम कि क्यों दर्द हो रहा है। लेकिन यह तो नहीं कि तुम संदिग्ध हो कि दर्द हो रहा है कि नहीं हो रहा है। जब तुम प्रसन्न होते हो तो प्रसन्नता अपने आप में प्रमाण होती है। जब तुम दुखी होते हो तो दुख प्रमाण होता है। ब्रह्मचर्य का आनंद तो ऐसा, ऐसा अपूर्व है कि जब ब्रह्मचर्य फलता है तो किसी से पूछना पड़ेगा, कोई परिणाम की जांच-परीक्षा करनी पड़ेगी?
लेकिन गांधी का ब्रह्मचर्य ऊपर से थोपा हुआ था। वह जबरदस्ती थोपा गया था। आखिरी क्षणों में डर पैदा होने लगा उन्हें खुद भी कि मैं ब्रह्मचारी हूं या नहीं! और डर के कारण भी थे। क्योंकि आखिरी, सत्तर वर्ष, पचहत्तर वर्ष की उम्र में भी, स्वप्न में कामवासना पीछा करती थी। स्वप्नदोष भी आखिरी उम्र तक जारी रहा। तो घबड़ाहट स्वाभाविक थी। चिंता, भय था। इस भय को पार करने के लिए एक युवती को साथ लेकर सोने लगे—यह जांच के लिए कि मेरे मन में वासना उठती है कि नहीं उठती।
. गांधी के अनुयायियों ने बुरी तरह इस बात को छिपाने की कोशिश की है कि यह कभी जैसे हआ ही नहीं। क्योंकि यह तो सारी की सारी ढांचे को तोड़ देने वाली बात है। अगर गांधी खुद संदिग्ध हैं तो अनुयायियों का क्या भरोसा? गांधी को खुद ही अपने पर भरोसा नहीं है, तो क्या दूसरे को सिखाना? और क्या हुआ गांधी का अनुभव इस युवती के साथ सोकर, उसकी कोई जाहिर खबर नहीं की गई—उन्होंने पाया कि नहीं पाया कि ब्रह्मचर्य सही था कि नहीं था। और बड़ी कठिनाई है। क्योंकि एक आदर्श को ऊपर से थोप लिया है। अब उसको पूरा करने की जिद्द है। और वासना भीतर कहीं न कहीं छिपी है, कहीं न कहीं अचेतन में दबी है। घाव की तरह है। उसे हमने ऊपर से ढांक लिया, मलहम-पट्टी कर दी है। लेकिन घाव मिटा नहीं है।
असंभव को मत थोपो, असाधारण को मत थोपो, अगर तुम चाहते हो कि लोग पुण्यात्मा हों। क्योंकि जितना तुम असंभव थोपोगे उतने ही लोगों के मन में अपराध और पाप का भाव पैदा होगा कि हम पापी हैं, हम पापी हैं: हमसे कुछ भी नहीं हो रहा। न हम उपवास कर सकते, न हम ब्रह्मचर्य साध सकते, न हम लोभ छोड़ सकते, न क्रोध छोड़ सकते। कुछ भी तो नहीं कर सकते। तो हमसे ज्यादा महागर्त में कोई भी नहीं है।
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