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आदर्श रोग हैं, सामान्य व स्वयं ठोबा स्वास्थ्य
और यह जो जीवन की नई शैली है यह आदर्श को स्थापित करने से कभी भी नहीं फलित होगी। आदर्श झूठे हैं। तुम्हारी मनोकांक्षाएं हैं, मृग-मरीचिकाएं हैं। दिखाई पड़ते हैं दूर से मरुस्थल में सरोवर, जब तुम पास जाते हो तब वहां कुछ भी नहीं है। सरोवर और आगे हट गया। क्षितिज की भांति हैं तुम्हारे आदर्श। तुम इन्हें कभी पा न सकोगे। जैसे जमीन और आकाश कहीं भी मिलते नहीं, सिर्फ मिलते मालूम होते हैं, ऐसे हैं तुम्हारे आदर्श। कभी मिलते नहीं, बस ऐसा लगता है कि मिल रहे हैं, मिल रहे हैं।
सामान्य को स्वर बनाओ, सहज को पहचानो; असहज से बचो। विशिष्ट को मत अपने ऊपर थोपो, सामान्य को उघाड़ो। जो तुम्हारे भीतर है उसे विकसित करो। और किसी ढांचे में नहीं। क्योंकि ढांचा विकास नहीं देता, बंधन देता है। तुम तुम्हारे जैसे ही होओगे। जब तुम खिलोगे अपनी परिपूर्णता में तो तुम न महावीर जैसे होओगे, न कृष्ण जैसे, न मेरे जैसे, न किसी और जैसे। जब तुम खिलोगे तो तुम्हारा फूल अनूठा होगा, तुम्हारे जैसा ही होगा। आनंद वही होगा, जो महावीर का है, बुद्ध का है, लाओत्से का है; भीतर की शांति वही होगी। लेकिन तुम्हारे जीवन की रूप-शैली बिलकुल भिन्न होगी।
लाओत्से कहता है, 'राज्य का शासन सामान्य के द्वारा करो।'
समाज को सामान्य से सम्हालो; आदर्श मत थोपो। इसलिए जितना आदर्शवादी समाज होता है उतना ही भ्रष्ट हो जाता है। भारत इसका प्रमाण है। हमने जितने आदर्श थोपे हैं, दुनिया में कभी किसी ने नहीं थोपे। और इससे ज्यादा भ्रष्ट समाज तुम कहीं खोज पाओगे?
और बड़े मजे की बात और बड़ा दुष्ट-चक्र है। बड़ा दुष्ट-चक्र है और वह दुष्ट-चक्र यह है कि आदर्शवादी जब भी देखता है कि समाज भ्रष्ट हो रहा है तो वह और नए आदर्शों की तजवीज करता है। वह कहता है, आदर्श नष्ट हो रहे हैं। और बड़े आदर्श लाओ। और सख्ती से आरोपित करो आदर्श। और नियम बनाओ। और नीति खोजो। आचरण को शिथिल मत छोड़ो, अनुशासन दो। और उस बेचारे को पता नहीं कि वही बीमारी की जड़ है-उसके आदर्श ही। जब आदर्श को टूटते देखता है वह तो और आदर्श ले आता है। और आदर्श के साथ और भ्रष्टाचार आता है।
भारत के भ्रष्टाचार में गांधी का जितना हाथ है उतना किसी का भी नहीं। इसे कोई कहता नहीं; कोई कहेगा भी नहीं। इसे कहने के लिए लाओत्से की समझ चाहिए। क्योंकि गांधी ने ऐसे-ऐसे आदर्श थोपने की कोशिश की जो संभव नहीं हैं। जिनको गांधी चाहें तो अपने आश्रम में भी नहीं थोप सकते, इतने बड़े समाज में तो थोपने का सवाल क्या है!
गांधी अचौर्य को आदर्श मानते हैं कि चोरी बिलकुल न हो।
यह असंभव है। क्योंकि जब तक संपदा है तब तक चोरी होगी। संपदा मिट जाए तो चोरी मिट सकती है। क्योंकि चोरी सिर्फ इस बात की कोशिश है कि किसी के पास ज्यादा है और किसी के पास कम है। और जिसके पास ज्यादा है और जिसके पास कम है, उनके बीच चोरी पैदा होती है।
तुम्हारा नौकर चोरी करता है। तुम सोचते हो, शायद इसलिए चोरी करता है कि कोई आदर्श नहीं रहे। तो तुम गलती में हो। उसके पास कम है; तुम्हारे पास ज्यादा है। और जीवन का एक सहज नियम है कि चीजों को एक तल पर ले आओ। जैसे पानी है। तुम घड़ा भर लो नदी से, फिर तल बराबर हो जाता है; तुम घड़ा भर डाल दो नदी में, फिर तल बराबर हो जाता है। नदी का जल अपना तल समान रखता है-कितना ही निकालो, कितना ही डालो। और समाज के जीवन का तल इतना भिन्न है कि चोरी अनिवार्य है। अगर तुम अचौर्य को लक्ष्य बना लोगे तो कुछ हल न होगा; सिर्फ चोर और बढ़ जाएंगे।
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