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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ अब ये सपने हैं और झूठे हैं। और अगर इनको तुमने आदर्श मान लिया तो तुम सोच लो कि तुम हमेशा ही अतृप्त रहोगे। जब तक पसीने में बदबू आएगी और जब तक तुम्हें मल-मूत्र विसर्जन करना पड़ेगा, तब तक तुम जानते हो कि तुम पापी हो। और यह तृप्ति कभी होने वाली नहीं है। और अगर इसकी दौड़ में तुम लग गए तो तुम एक ऐसी रुग्णता की तरफ जा रहे हो जिसका कोई इलाज नहीं हो सकता और कोई औषधि नहीं है। यह तो कैंसर से भी ज्यादा घातक बीमारी है आदर्श की। कैंसर का मारा बच जाए, आदर्श का मारा नहीं बचता। इसे समझने के लिए बड़ी समझ चाहिए। यह पूरा का पूरा जाल है तुम्हारे मन का। तुम महिमा-पुरुषों को उठाते चले जाते हो आकाश में; उस जगह रख देते हो जहां वे मनुष्यता के बिलकुल पार हैं। मैं तुमसे कहता हूं कि सभी महिमावान पुरुष तुम्हारे जैसे ही मनुष्य थे। उनमें वह सब था जो तुममें है; सिर्फ उन्होंने, तुममें जो सब है, उसका आयोजन भर बदला था। वीणा तुम्हारे पास भी है। अंगुलियां तुम्हारे पास भी हैं। उन्होंने वीणा और अंगुली को जोड़ दिया था और उनकी अंगुलियां सध गई थीं और वीणा में संगीत उठ गया था। तुम भी छेड़ते हो तो सिर्फ विसंगीत उठता है और मुहल्ले-पड़ोस के लोग लड़ने-झगड़ने को खड़े हो जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा एक दिन कि कैसा अभ्यास चल रहा है हारमोनियम पर? उसने कहा, फुरसत कहां! कार में ही उलझा रहता हूँ। तुम्हें कार किसने दे दी? कहां से कार मिल गई? उसने कहा कि मुहल्ले वालों ने हारमोनियम के बदले में कार दी है। तुम एक हारमोनियम ले आओ और बजाने-पीटने लगो, मुहल्ले वाले देंगे ही। आखिर उनको अपनी सुख-शांति की थोड़ी चिंता...। सिर्फ आयोजन बदलता है। महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, ठीक तुम जैसे व्यक्ति हैं। तुम्हारे पास जितना है उतना ही उनके पास है; रत्ती भर ज्यादा नहीं। इस जगत में अन्याय है भी नहीं; रत्ती भर ज्यादा हो भी नहीं सकता। यहां न किसी को कम मिलता है, न ज्यादा; बराबर मिलता है। फर्क इतना है कि कोई अपने आटे और पानी को मिला कर । आग पर सेंक कर रोटी बना लेता है और तृप्त हो जाता है। और तुम बैठे हो, आग जल रही है, उससे पसीना बह रहा है। आटा पड़ा है, वह सड़ रहा है, और तुम भूखे हो। पानी भरा है, सब मौजूद है। मौजूद सब है पूरा का पूरा, उसका सरंजाम, संगीत, उसका समन्वय बिठाने का फर्क है। महावीर जब तीर्थंकर हो जाते हैं तब भी वे तुम्हारे ही जैसे हैं। तीर्थंकर तो संगीत है जो उन्होंने पैदा कर लिया, उसी इंतजाम से जो तुम्हारे पास भी है। जीसस जब ईश्वर जैसे हो जाते हैं तो वह संगीत है। जीसस में तुमसे जरा भी भेद नहीं है। भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है, मल-मूत्र भी-सब कुछ वही है। लेकिन उस इंतजाम में से अब एक नई सुवास उठ रही है, एक नया संगीत उठ रहा है, जो तुममें से भी उठ सकता है। लेकिन तुम दीन हो अपनी ही नासमझी से। तुमने अपने प्राणों की पूरी व्यवस्था को नहीं पहचाना, और इन विभिन्न विपरीत जाते स्वरों को कैसे बिठाएं एक राग में, वह तुमने न सीखा। एक नर्तक को देखो। उसके पास शरीर तुम्हारे ही जैसा है, लेकिन नृत्य के क्षणों में नर्तक ऐसा लगता है जैसे वेटलेस, भाररहित हो गया। उसकी छलांग, उसकी कूद, उसकी भाव-भंगिमाएं किसी अलौकिक को उतार लाती हैं। एक समां बंध जाता है। तुम विमुग्ध हो जाते हो, क्षण भर को तुम भूल ही जाते हो कि तुम हो भी। तुम्हारे ही जैसा शरीर है, तुम्हारे ही जैसे अंग हैं, सब कुछ तुम्हारे जैसा है; लेकिन इसी शरीर से एक कला को जन्मा लिया, एक नया कौशल पैदा हुआ। वह कौशल सब कुछ बदल देता है। शरीर को एक नया रूप दे देता है। शरीर को एक नया ढंग दे देता है। जीवन की एक नई शैली का जन्म हो जाता है। 206
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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