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________________ आदर्श रोग है, सामान्य व स्वयं ठोबा स्वास्थ्य यह तो विरोधी था जो यहां तक खींच लिया बात को। और पक्ष में लोग थे जिन्होंने ईश्वर का बेटा जीसस को घोषित किया। न केवल बेटा, बल्कि एकमात्र बेटा! ताकि कोई दूसरे बेटे का दावा भी न कर सके। निंदक और प्रशंसक दोनों ही अति पर चले जाते हैं। मध्य में कहीं सत्य होता है, जो कि छिप ही जाता है। तो पक्का पता भी नहीं है कि तुम पहले आदर्श थोप देते हो, फिर उस आदर्श को मान कर तुम अपने अनुसरण करना शुरू कर देते हो। तुम्हारे आदर्श तुम्हारी आकांक्षाओं की सूचना देते हैं, सत्यों की नहीं। तुम चाहोगे कि ऐसा हो सके। जो तुम चाहते हो, तुम आरोपित कर लेते हो किसी व्यक्ति में। आरोपित इसलिए कर लेते हो कि अगर यह किसी व्यक्ति में कभी हुआ ही नहीं तो फिर तुम भरोसा न कर सकोगे। तो अगर तुम ब्रह्मचर्य चाहते हो, जो कि कौन नहीं चाहता? क्योंकि जो भी काम की पीड़ा को झेलता है उसके मन में ब्रह्मचर्य की आकांक्षा पैदा होती है। जो काम की व्यर्थता को झेलता है उसके मन में ब्रह्मचर्य की आकांक्षा पैदा होती है। उसे लगता है, कब आएगी वह घड़ी, परम सौभाग्य का क्षण, जब मेरी ऊर्जा मुझमें ही बसेगी और मैं व्यर्थ उसे फेंकता न फिरूंगा। कब होगा वह मधुर क्षण जीवन में जब दूसरे की मुझे कोई जरूरत न रह जाएगी और मैं अपनी परम शुद्धि में, अपने एकांत में तृप्त हो सकूँगा? स्वाभाविक है। लेकिन तुम्हें भरोसा कैसे आएगा कि यह हो भी सकता है? यह आकांक्षा है। लेकिन यह हो कैसे सकता है? अपने आपको अगर तुम जांचोगे तब तो तुमको भरोसा नहीं आ सकता। क्योंकि तुम जानते हो, कितनी बार तुमने तय किया और कितनी बार तोड़ा। कितनी बार व्रत लिया और कितनी बार उल्लंघन किया। कितनी बार निर्णय लिया और निर्णय तुम ले भी नहीं पाते हो कि निर्णय टूट जाता है, एक दिन भी तो नहीं टिकता। अगर तुम गौर से जांचो, तो इधर तुम निर्णय ले रहे हो और उसी वक्त मन का दूसरा कोना वासना की तैयारी कर रहा है। एक क्षण भी, जब तुम निर्णय ले रहे हो उस क्षण में भी, तुम ईमानदार नहीं हो। अगर तुम पूरा मन देखोगे तो तुम पाओगे, तुम क्या कर रहे हो! भीतर तो तुम्हारे मन में तैयारी हो रही है वासना की, और ब्रह्मचर्य का तुम निर्णय ले रहे हो। तो तुम अपने पर तो भरोसा कर नहीं सकते, और ब्रह्मचर्य की आकांक्षा पैदा होती है। फिर क्या करो? फिर यही करो कि तुम किसी में मान लो कि वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गया है। और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर तुम जो-जो कल्पना करते हो अपने लिए वह-वह सब कल्पनाएं कर लो। महावीर के अनुयायी कहते हैं कि महावीर के शरीर से पसीने की दुर्गंध नहीं उठती, सुगंध आती है। ये तुम्हारी कल्पनाएं हैं। पसीना पसीना है। पसीना जिस नियम से बहता है वह नियम महावीर और गैर-महावीर में फर्क नहीं करता। महावीर के अनुयायी कहते हैं कि महावीर मल-मूत्र विसर्जन नहीं करते। क्योंकि मल-मूत्र विसर्जन करने जैसी क्षुद्र बात महावीर करेंगे, यह सोच कर ही मन को धक्का लगता है। तुम्हीं सोचो कि बुद्ध और महावीर टॉयलेट पर बैठे हैं। मन इनकार करता है कि नहीं, यह हो ही नहीं सकता। वे तो बोधिवृक्ष के नीचे ही ठीक मालूम पड़ते हैं। तुम भी चाहोगे कि तुम्हारे जीवन से मल-मूत्र बिलकुल विदा हो जाए। तुम परिशुद्ध, खालिस सोना हो जाओ। यह आकांक्षा है। इस आकांक्षा को पहले तुम आरोपित करते हो। वर्तमान में करोगे तो मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि वर्तमान का महावीर तो मल-मूत्र विसर्जन करेगा। इसलिए अतीत के महावीर सुखद हैं। वे चिल्ला कर कह भी नहीं सकते कि क्या कर रहे हो! और तुम उनको कभी उलटा काम करते हुए पकड़ भी न पाओगे। तुम जो कहोगे, अतीत पर थुप जाता है। इसलिए तो मरे हुए गुरु ज्यादा आदृत हो जाते हैं जीवित गुरुओं की बजाय। जैसे ही गुरु मरता है कि कथा रचनी शुरू हो जाती है। तुम्हारी सब आकांक्षाएं हमला कर देती हैं गुरु पर। जो-जो मानवीय था, तुम सब काट देते हो। जो-जो सामान्य था, तुम सब अलग कर देते हो। जो-जो असामान्य तुम्हारे सपनों में उठता है, वह सब तुम आरोपित कर देते हो। |205
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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