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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 196 न मिटा पाएं, या न मिटाने के लिए रास्ते पर लगा पाएं, कुछ उपाय न कर पाएं, तो चिंता, बेचैनी पकड़ती है। लेकिन करुणावान व्यक्ति अगर तुम्हारे बुरे को, तुम्हारे व्यर्थ को न मिटा पाए, तो इससे चिंतित नहीं होता। तुम उसकी नींद को नहीं नष्ट कर सकते। करुणावान व्यक्ति घृणा की तरह ठंडा होगा और प्रेम की भांति सौहार्द से परिपूर्ण । एक शीतल प्रेम, जिसमें कोई उत्ताप नहीं है, जिसमें कोई ज्वर नहीं है। करुणा बड़ी रहस्यपूर्ण है, क्योंकि उसमें दोनों विरोध खो जाते हैं। 'तब प्रेम और घृणा नहीं छू सकतीं। लाभ और हानि उससे दूर रहती हैं।' क्योंकि अब कुछ पाने योग्य ही न रहा; लाभ कहां ? सब पा लिया; हानि कैसी ? 'मान और अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते।' क्योंकि नजर अब अपने पर लग गई है। अब नजर दूसरे पर नहीं है। अब दूसरा क्या कहता है, इससे कोई अर्थ नहीं बनता। अब अपना होना इतना महत्वपूर्ण है, ऐसी गरिमा से भरा है कि तुम अपमान करो तो कोई फर्क नहीं पड़ता, तुम सम्मान करो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अपमान करके तुम मुझसे कुछ छीन नहीं सकते, सम्मान करके तुम मुझे कुछ दे नहीं सकते । तो क्या अर्थ रहा तुम्हारे अपमान और सम्मान का ? व्यक्ति पहली दफा उस परम धन का धनी हो जाता है जिसमें न कुछ घटाया जा सकता, न कुछ बढ़ाया जा सकता। यह आत्म- गरिमा है, जिसको लाओत्से कुलीनता कहता है। उसके भीतर से प्रकाश आता है। अब तुम्हारा मान-अपमान कुछ भी जोड़ता नहीं। अब वह परम स्वतंत्र है। अब उसकी निर्भरता नहीं है। अब तुम्हारे विचारों पर, मंतव्यों पर उसका कुछ भी फर्क नहीं पड़ता – ऐसा या वैसा, इधर या उधर, पक्ष या विपक्ष । सारी दुनिया साथ हो तो भी उसकी चाल वही होगी। और सारी दुनिया विरोध हो जाए तो भी उसकी चाल वही होगी। उसकी चाल में कोई अंतर नहीं पड़ता । 'मान-अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते। इसलिए वह संसार में सदा ही सम्मानित है। और इसलिए उसका सम्मान अंतिम है। तुम उसका अपमान नहीं कर सकते; उसका सम्मान आखिरी है। क्योंकि तुम उसका सम्मान भी करके सम्मान नहीं कर सकते। उसका सम्मान अब भीतरी है, उसकी प्रतिष्ठा आंतरिक है। जो तुम पर निर्भर है उसकी प्रतिष्ठा तुम पर निर्भर है। तुम साथ दो तो वह सम्राट है; तुम साथ न दो, का भिखारी है। तुम प्रशंसा करो तो वह गौरवान्वित है; तुम अपमान करो, गौरव भ्रष्ट धूल-धूसरित हो गया । आत्म-प्रतिष्ठावान व्यक्ति की स्थिति में तुम कुछ भी तो नहीं घटा-बढ़ा सकते। तुम प्रशंसा करो तो भी वह साक्षी है; तुम निंदा करो तो भी वह साक्षी है। तुम्हारी प्रशंसा से तुम्हीं को लाभ हो सकता है, तुम्हारी निंदा से तुम्हारी ही हानि हो सकती है। तुम्हारी गालियां तुम पर ही लौट आएंगी। तुम्हारे फूल भी तुम पर ही बरस जाएंगे। इसलिए क्या तुम करते हो, सोच कर करना । ऐसे आदमी के साथ बड़ा खतरा है। क्योंकि जो भी तुम करोगे वही तुम्हें वापस मिल जाएगा। ऐसा आदमी तो ऐसा है जैसा कभी तुम किसी पहाड़ में गए हो। माथेरान की पहाड़ियों में एक जगह है, इको प्वाइंट। तुम जो भी बोलो वही आवाज लौट कर वापस आ जाती है। तुम कुत्ते की तरह भौंको, सारी घाटी कुत्तों की आवाज लौटा कर तुम पर बरसा देती है। तुम कोई प्रेम का गीत गाओ, घाटी उसे दोहरा देती है। तुम ओंकार का मंत्र पढ़ो, घाटी उसे दोहरा देती है। आत्म-प्रतिष्ठा को उपलब्ध हुआ व्यक्ति, ताओ को उपलब्ध हुआ व्यक्ति एक शून्य घाटी है। उसमें तुम जो भी ले जाओगे, वापस आ जाएगा। वह एक प्रतिध्वनि है। इसलिए उसे सोच कर देना । जो तुम पाना चाहते हो वही उसे देना। अगर गाली पाना चाहते हो, गाली दे देना; सम्मान पाना चाहते हो, सम्मान दे देना। उसे कुछ भी नहीं दिया जा सकता; तुम अपने को ही उसके बहाने कुछ दोगे; दे रहे हो। सब तुम्हीं पर वापस लौट आता है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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