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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ मूल्यवान होगा। और वही अनुभव तुम्हें ब्रह्मचर्य की तरफ ले जाएगा। धीरे-धीरे संभोग विदा हो जाएगा। अगर इंद्रियां सुलझी हों तो जीवन से वासना का विदा हो जाना बड़ा आसान है। अगर उलझी हों तो बिलकुल असंभव है। तब इलाज तुम कहीं करते हो, बीमारी कहीं और। आपरेशन कहीं करते हो, ग्रंथि कहीं और। तब तुम्हारे आपरेशन से और सब उलझ जाता है। लाओत्से कहता है, 'इसकी ग्रंथियों को निग्रंथ करो।' । पहले इसकी ग्रंथियों को खोलो। पहला काम है इसे खोल लेना; साफ सब चीजों को अपनी जगह रख देना। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बीमारी थी और वह चौके में कुछ तैयार कर रहा था। भागा हुआ आया और उसने कहा कि मुझे नमक नहीं मिल रहा है। उसने कहा कि तुममें बुद्धि नहीं है। पत्नी ने कहा, सामने ही जिस डिब्बे में जीरा लिखा है उसी में तो नमक रखा है। आंख के सामने रखा है, और तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता! अब जिस डिब्बे में जीरा लिखा है उसमें नमक रखा है! इसमें मुल्ला नसरुद्दीन का कसूर भी क्या है बेचारे का? वह तो डिब्बा उसको भी दिखाई पड़ रहा है। लेकिन पत्नी के अपने कोड हैं। सभी स्त्रियों के होते हैं। उनके चौके में घुस कर आप ठीक पता नहीं लगा सकते कि मामला क्या है। कहां कौन सी चीज है, वह उनको ही पता है। और जहां-जहां जो-जो लिखा है, उस भूल में मत पड़ना, वह वहां हो नहीं सकता। लिखने से कुछ लेना-देना नहीं है। और वैसी ही दशा तुम्हारी है। जहां जननेंद्रिय लिखी है प्रकृति ने, वहां जननेंद्रिय नहीं है। जहां प्रकृति ने पेट लिखा है, वहां पेट नहीं है। तुम एक अराजकता हो। तुम्हारे भीतर सब असंगत हो गया है, अस्तव्यस्त हो गया है। तो लाओत्से कहता है, 'ग्रंथियों को निग्रंथ करो। इसके प्रकाश को धीमा करो; इसके शोरगुल को चुप करो' एक प्रकाश है तुम्हारे भीतर जिसको हम बुद्धि कहें, तर्क कहें, विचार कहें। वह अतिशय है। तुम हर चीज को उसी प्रकाश से देख रहे हो। वह प्रकाश तुम्हारे अंधेपन का कारण हो गया है। लाओत्से कहता है, इस प्रकाश को धीमा करो। इतना ज्यादा विचार करने की जरूरत नहीं है। और पाया भी क्या विचार करके? इस दीए को इतना मत जलाओ। कभी-कभी इसे बुझा भी दो, और गहन अंधकार में हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में एक नए प्रकाश का. उदय होगा जो बुद्धि का नहीं है, जो आत्मा का है। तुम्हारे जीवन में एक नया प्रकाश आएगा जो तर्क का नहीं है, जो श्रद्धा का है। एक नया प्रकाश आएगा जो विवाद का नहीं है, संवाद का है। वह धीमा होगा शुरू में। और अगर तुम यह बुद्धि का प्रकाश ही जलाए रखे तो उसका तुम्हें पता ही न चलेगा। तुम इसे हटाओ। तुम इसे पहले धीमा करो, फिर इसे तुम बिलकुल बुझा दो। _ 'इसके शोरगुल को चुप करो।' और तुम इसे विचार समझ रहे हो, यह सिर्फ शोरगुल है। तुम इसे विचार समझ रहे हो, यह सिर्फ बाजार है। इससे तुम कहीं भी नहीं जा रहे हो। तुमने व्यर्थ कचरा सब तरफ से इकट्ठा कर लिया है; वह कचरा तुम्हारे भीतर घूम रहा है। कोई विचार कहीं से, कोई विचार कहीं और से; कोई शास्त्र से, कोई अखबार से, कोई रेडियो से, कोई मित्र से, कोई दुश्मन से; सब तुमने इकट्ठा कर लिया है। वह सब तुम्हारे भीतर है। उसका शोरगुल मचा हुआ है। और तुम इस पर भरोसा किए हो। और यही भरोसा तुम्हें भटका रहा है। निर्विचार ले जाता है; विचार भटकाता है। निर्विचार का एक संगीत है; विचार में केवल एक शोरगुल है। लेकिन लोग शोरगुल के आदी हो जाते हैं। रेलवे स्टेशन पर जो लोग सोते हैं, अगर रेलगाड़ियां आती-जाती रहें तो उनकी नींद लगी रहती है। अगर उस दिन रेलगाड़ियां न आएं, हड़ताल हो जाए, तो उनको नींद नहीं आती, नींद टूट जाती है। जो लोग ज्यादा यात्रा करते हैं, जब तक रोज बदलाहट न हो तब तक उनको नींद नहीं आती। अपने घर में आकर दो-चार दिन शांति से रहें तो उनकी नींद खो जाती है। शोरगुल की भी आदत हो जाती है। 194
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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