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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ जो तुम बोओगे वह तुम्हीं काटोगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। यह भी हो सकता है, तुम भूल ही जाओ कि हमने बोई थी फसल। जब काटो, समय बहुत बीत चुका हो। लेकिन काटोगे तुम्हीं। यह जीवन का शाश्वत नियम है। आखिर तुम्हारे कांटे तुम्हें ही चुभेंगे। और तुम अगर गौर से देख सको तो आज भी तुम्हें ही चुभते हैं। तुम्हारा क्रोध जरूरी नहीं है कि जिस पर तुमने क्रोध किया उसे दुख दे। अगर वह नासमझ है तो देगा; वह उसकी नासमझी का दुख है, तुम्हारे क्रोध का नहीं। लेकिन तुमने क्रोध किया, तुम तो दुखी होओगे ही। तुम अगर बुद्ध को जाकर गाली दो तो बुद्ध को तुम दुखी नहीं कर सकते। तुम्हारी गाली वहां निस्तेज है। क्योंकि तुम्हारी गाली थोड़े ही दुख देती है; उस आदमी का अपना अज्ञान दुख देता है। अज्ञान गाली को पकड़ लेता है। अज्ञान गाली से चिपक जाता है। अज्ञान कांटे से उलझ जाता है। अज्ञान ही दुख देता है। बुद्ध को गाली दोगे, तुम दुख न दे पाओगे; लेकिन तुम दुख पाओगे। क्योंकि गाली देना कुछ आसान थोड़े ही है। उसे ढालना पड़ता है; उसे तैयार करना पड़ता है। जहर को तुम अपने ही भीतर की प्रयोगशाला में पहले निर्मित करते हो। उसमें तुम जहरीले हो जाते हो। 'धारों को घिस दो; इसकी ग्रंथियों को निग्रंथ करो।' ग्रंथियां क्या हैं? गांठ कहां लगी है तुम्हारे भीतर? कई गांठें हैं। और लाओत्से के हिसाब से गांठ का अर्थ . होता है कि तुम्हारी एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय के साथ उलझ जाए तो गांठ पैदा होती है। जैसे एक धागा दूसरे धागे से उलझ जाए तो गांठ पैदा होती है। और तुम्हारी सब इंद्रियां एक-दूसरे में उलझ गई हैं। प्रत्येक इंद्रिय का एक सम्यक कृत्य है। यह बड़ी रहस्यपूर्ण बात है। इसे तुम ठीक से समझ लेना। कामवासना जननेंद्रिय का कृत्य है। मन को उस संबंध में सोचने की कोई जरूरत भी नहीं है। वह कृत्य मन का नहीं है। कामवासना जननेंद्रिय का कृत्य है। वह जननेंद्रिय के पास ही सीमित रहना चाहिए। उसके लिए मन तक ले जाने का अर्थ है, मन और जननेंद्रिय एक-दूसरे में गुंथ गए, उलझ गए। गुरजिएफ ने इस पर बहुत काम किया इस सदी में। वह अपने साधकों की ग्रंथियां खोलने का पहले काम करता था। वह कहता था, जब तक तुम्हारी ग्रंथियां न सुलझ जाएं, कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि अगर कामवासना जननेंद्रिय में हो तो कुछ किया जा सकता है। लेकिन कामवासना खोपड़ी में हो तो क्या करें? क्योंकि वह कामवासना की इंद्रिय ही नहीं है। बीमारी ठीक जगह हो तो सुधारी जा सकती है। बीमारी ऐसी जगह हो जहां उसकी जगह ही नहीं है तो सुधारना बहुत मुश्किल है। जो जहां है पहले वहां रख देना जरूरी है। तो गुरजिएफ कहता था, पहले कामवासना को वापस जननेंद्रिय में ले आओ। भूख पेट में लगनी चाहिए, खोपड़ी में नहीं। खोपड़ी की भूख अलग होती है; पेट की भूख अलग होती है। पेट की भूख तो वास्तविक है, उसे भोजन से भरा जा सकता है। वह कोई कठिन काम नहीं है। लेकिन खोपड़ी में भूख समा जाए, फिर भरने का कोई उपाय नहीं है। नीरो के संबंध में कथा है कि उसने डाक्टर रख छोड़े थे। खाना खाता, उलटी करवाता, ताकि फिर खाना खा सके। यह भूख पेट की नहीं हो सकती। बीस-बीस बार खाना खाता था। अब खाना बीस बार कोई भी नहीं खा सकता। तो एक ही उपाय है कि खाना खा लो, फिर उलटी कर दो; फिर से खाना खा लो। यह खोपड़ी में चली गई बात। कामवासना अगर जननेंद्रिय में हो तो वास्तविक होती है। खोपड़ी में चली गई, फिर मुश्किल हो जाती है। खोपड़ी के साथ सभी इंद्रियां गुंथ गई हैं। तो गुरजिएफ कहता था, हर चीज को पहले तो सुधार लो, अपनी जगह ले आओ। फिर बहुत आसान है। क्योंकि जननेंद्रिय से ब्रह्मचर्य को ले आना बिलकुल आसान है, कठिन नहीं। बहुत सीधी, सुगम, साधारण, सरल बात है। कोई अड़चन नहीं है। पेट की भूख हो, जरा भी अड़चन नहीं है। अड़चन तो तब खड़ी होती है जब कि भूख 192
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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