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सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता
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'इसके द्वारों को बंद करो।'
और ध्यान रखना, जब भी वासना की पहली झलक भीतर उठती है उसी वक्त उससे सहयोग तोड़ लेना सुगम है। जितनी देर कर दोगे उतना ही मुश्किल हो जाएगा। और क्यों व्यर्थ समय नष्ट करना; पहले उसको जमाना, फिर उखाड़ना; जमने ही मत दो। उस फसल में कोई सार नहीं है। कभी किसी ने कुछ सार पाया नहीं है। और जब वासना तुम्हें पकड़ लेगी तो फिर उसके न पूरे होने से अतृप्ति होगी, असंतोष होगा, अशांति होगी, तनाव होगा, चिंता होगी। फिर तुम सो न सकोगे। फिर तुम बेचैन रहोगे। ध्यान पर न बैठ सकोगे। जो वासना है वह तुम्हारा पीछा करेगी। वह सब जगह तुम्हें बेचैन रखेगी।
वासना एक ज्वर है, चेतना का ज्वर । चेतना का तापमान ऊपर चला जाता है। तब एक उद्विग्नता भीतर समा जाती है। वह उद्विग्नता हर घड़ी मौजूद रहती है । और कठिनाई यह है कि अगर तुम ऐसा वर्षों उद्विग्न रह कर अपनी वासना को पूरा भी कर लो, तब भी कुछ हल नहीं पूरा करके तुम पाते हो, नाहक ही इतने परेशान हुए। जब तक मिला नहीं तब तक दौड़ते थे; अब मिल गया तो कुछ सार नहीं मालूम पड़ता। क्या करोगे बड़े महल में होकर भी ? जितना सपने में सुंदर मालूम पड़ता है उतना यथार्थ में कुछ भी सुंदर नहीं है। लेकिन पाकर ही तुम पाओगे। लेकिन तब तक जीवन जा चुका।
और मन की यह खूबी है, वासना का यह जाल है कि वह तुम्हें नई आशाएं और नए आश्वासन देता है। वह कहता है, इस मकान में नहीं हो सका रस, नहीं आनंद आ सका, लेकिन और बड़े मकान हैं। अभी हारने की कोई जरूरत नहीं। इतने धन से नहीं मिली तृप्ति, स्वाभाविक है। इतने धन में किसको मिलती है? अभी धन का बड़ा विस्तार है; अभी और बड़ा धन पाया जा सकता है। अभी खजाने कायम हैं। और अभी जिंदगी शेष है। क्यों थकते हो ? क्यों हारते हो? मन कहता है, बढ़े जाओ ! बढ़े जाओ! मन आखिरी क्षण तक, जब मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है, तब तक कहे जाता है कि अभी भी कुछ हो सकता है। मन से बड़ा आश्वासन देने वाला तुम दूसरा न पाओगे। और तुमसे बड़ा नासमझ तुम न खोज सकोगे जो इसकी माने चला जाता है। यह किसी भी आश्वासन को कभी पूरा नहीं करता। इसने कोई आश्वासन अतीत में पूरे नहीं किए हैं। लेकिन फिर भी तुम माने चले जाते हो। थोड़ा जागो !
'इसके द्वारों को बंद करो; इसकी धारों को घिस दो ।'
धार क्या है ? इंद्रियां हैं छिद्र, मन में उठी वासनाएं हैं द्वार। धार क्या है ? तुम्हारे नकारात्मक मनोवेग, निगेटिव इमोशंस धार हैं। तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी घृणा, तुम्हारा वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, ये तुम्हारी धारें हैं। इनके कारण जो भी तुम्हारे पास आएगा उसको तुम चुभोगे। तुम्हारा को दूसरों के लिए कांटे की तरह है। तुम्हारी घृणा दूसरों के लिए जहर की तरह है। तुम्हारे पास जो भी आएगा वही पीड़ित होगा। तुम चाहे किसी को प्रेम में ही छाती से आलिंगन क्यों न कर लो, लेकिन तुम्हारे कांटे उसे भी चुभेंगे।
'धारों को घिस दो ।'
ये चारों तरफ तुम्हारी जो धारें हैं इनको घिसो । क्रोध से न किसी दूसरे को सुख मिलने वाला है, न तुम्हें । घृणा से न किसी और को स्वर्ग मिलेगा, न तुम्हें। और तुम जब तक दूसरे के लिए नरक बनाते रहोगे तब तक तुम अपने लिए ही नरक बना रहे हो, इसे ठीक से जान लेना । कोई इस दुनिया में दूसरों के लिए गड्ढे नहीं खोद सकता। तुम भला दूसरों के लिए खोदते हो; आखिर में तुम पाओगे, तुम्हीं उनमें गिर गए हो। तुम और तुम्हारे गड्ढे ! दूसरे के अपने गड्ढे हैं जो उसने खुद खोदे हैं। वह तुम्हारे गड्डों में गिरने क्यों आएगा ? प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के गड्ढों में गिरता है। दूसरों के अपने गड्ढे हैं। तुम्हें मेहनत करने की जरूरत भी नहीं है। वे खुद अपनी तरफ से गिरेंगे। लेकिन तुम खोदते दूसरे के लिए हो; आखिर में पाते हो कि खुद गिर गए। फसल बोते हो दूसरे के लिए, काटनी खुद पड़ती है।