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ताओ उपनिषद भाग ५
पता ही नहीं हिंदू, जैन, मुसलमान, ईसाई का; सर्दी-जुकाम सभी को होती है, एक ही नियम से होती है; वह कोई धर्म का भेद नहीं मानती। वह तो चिकित्सा देता है। मुसलमान पर भी वही दवा काम करती है; हिंदू पर भी वही दवा काम करती है; ईसाई पर भी वही दवा काम करती है। दवा ही वही है जो सार्वभौम है। अगर कोई दवा का यह हो कि पहले हिंदू होना पड़ेगा तब काम करेगी, तो वह दवा नहीं है, धोखा है। ताबीज होगा; दवा नहीं है। किसी भ्रांति पर खड़ी होगी, किसी सत्य पर नहीं।
ध्यान का क्या लेना-देना कि तुम कौन हो-काले हो कि गोरे? स्त्री हो कि पुरुष? बच्चे हो कि बूढ़े? कोई लेना-देना नहीं है। ध्यान का सीधा संबंध, तुम्हारा रोग क्या है, उस रोग से है। और रोग सबके हैं। मुसलमान अशांत है, हिंदू अशांत है, जैन अशांत है। उनकी अशांति में जरा भी फर्क नहीं है। अशांति का नियम एक है। शांति का भी नियम एक है। लाओत्से अब उसकी चर्चा करता है। पहले वह कह देता है : जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। क्योंकि सत्य के संबंध में कुछ नहीं बोला जा सकता। लेकिन विधि के संबंध में निश्चित बोला जा सकता है। अब वह विधि की बात करता है।
___ 'इसके छिद्रों को भर दो, इसके द्वारों को बंद करो, इसकी धारों को घिस दो, इसकी ग्रंथियों को निग्रंथ करो; इसके प्रकाश को धीमा, इसके शोरगुल को चुप; यही रहस्यमयी एकता है।'
यही ध्यान की परम स्थिति है। जितनी बातें वह कहता है वे समझ लेने जैसी हैं। एक-एक बात ध्यान के लिए संभावनाओं को बढ़ाएगी। एक-एक औषधि स्वास्थ्य को करीब लाएगी। एक-एक बीमारी गिरे, स्वास्थ्य की क्षमता बढ़े।
'इसके छिद्रों को भर दो।'
इंद्रियां छिद्र हैं, जिनसे तुम्हारी जीवन-ऊर्जा बाहर जाती है। आंख से तुम सिर्फ देखते ही नहीं हो, आंख से तुम्हारे देखने की क्षमता बाहर जाती है। इसीलिए तो तुम बहुत देर देखते रहो तो बड़े थके हुए अनुभव करते हो। क्योंकि दर्शन की तुम्हारी जो क्षमता है वह प्रतिपल आंख से बाहर जा रही है। तुम यह मत समझना कि आंख सिर्फ एक खिड़की है। आंख एक सक्रिय इंद्रिय है। जब तुम देख रहे हो तो हजारों स्नायुओं पर तनाव पड़ रहा है। एक-एक आंख के पीछे लाखों-करोड़ों स्नायु हैं। बड़ा सूक्ष्म जाल है। उससे सूक्ष्म कोई चीज जगत में नहीं है। आंख से सूक्ष्म कोई इंद्रिय जगत में नहीं है। तुम्हारे भीतर आंख के पीछे छिपा हुआ तुम्हारा तंतुओं का जाल, तुम्हारा पूरा मस्तिष्क है।
और जब तुम आंख से देख रहे हो तो आंख के भीतर रोशनी जा रही है, बाहर की चीजों के चित्र जा रहे, प्रतिबिंब जा रहे; आंख से भी कुछ बाहर जा रहा है। तुम्हारी देखने की क्षमता, तुम्हारी देखने की ऊर्जा बाहर जा रही है।
इसलिए अगर ज्ञानी हजारों वर्षों से आंख बंद करके ध्यान करते रहे हैं तो पागल नहीं थे। क्योंकि अगर परमात्मा को देखना हो तो देखने की ऊर्जा तो संगृहीत कर लो! देखने की क्षमता तो इकट्ठी हो जाने दो! देखोगे कैसे? और जितने विराट को देखना हो उतनी बड़ी ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, बैठते वक्त तो देखना ही मत, आंख खोलने की कोई जरूरत नहीं है। चलते वक्त चार कदम आगे, बस इतना देख लेना। आंख आधी खुली रहे, पूरी भी मत खोलना, और चार कदम आगे देखते हुए चलना। उतना काफी है। चार कदम देख लोगे, चार कदम चल लोगे, फिर चार कदम आगे दिखाई पड़ने लगेगा। चार कदम देख-देख कर तो आदमी हजारों मील की यात्रा कर लेता है। और ज्यादा देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तुम देखोगे उतने देखने की क्षमता का व्यय हो रहा है। और तुम परमात्मा को देखने की आकांक्षा से भरे हो। और तुमने सत्य को देखने का संकल्प किया है। और तुम वह जानना चाहते हो इस जीवन का जो परम रहस्य है। तो उसको जानने की क्षमता तो इकट्ठी कर लो। आंख तो चाहिए जो देख सके।
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