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________________ सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता अब कोई सामान नहीं बचा, कूड़ा-कर्कट नहीं जिसको हटाएं, अब तो सिर्फ खालीपन बचा है; यही खालीपन तत्क्षण एक विस्फोट हो जाता है। तत्क्षण तुम पाते हो, यह खालीपन खालीपन नहीं है। तुम्हारी नजरें फर्नीचर से बंधी थीं, इसलिए यह खाली मालूम होता है। क्योंकि फर्नीचर हट गया। जरा आंखों को सध जाने दो, जरा प्राणों को लयबद्ध हो जाने दो, जरा थोड़ा सा इस नए की प्रतीति को गहन में उतर जाने दो। अचानक तुम पाओगे, खालीपन? मैं पागल हूं, यह तो भरा है! जिससे तुम इसे भरा पाते हो, सब हटा देने पर, वही परमात्मा है। चाहे तुम उसे शून्य कहो, अगर तुम फर्नीचर के हिसाब से सोचते हो; चाहे तुम उसे पूर्ण कहो, अगर तुम जो उस शून्य में भरा हुआ पाते हो। लेकिन औषधि है धर्म, और गुरु चिकित्सक है। वह कोई व्याख्याकार नहीं है। विधि देता है। अब बड़ा मुश्किल है। तुम कहते हो, जिस परमात्मा का हमें पक्का भरोसा न हो उसको खोजने की हम विधि का भी क्या करेंगे? तो जो परम ज्ञानी है वह तुम्हें परमात्मा की खोजने की विधि भी नहीं देता। वह तो तुमसे कहता है, तुम परमात्मा की बात ही मत उठाओ; तुम्हारी तकलीफ क्या है वह बोलो। तुम अशांत हो? अशांति को काटने की विधि है। तुम दुखी हो? दुख को काटने की विधि है। तुम चिंतित हो? चिंता को काटने की विधि है। परमात्मा को तुम बीच में ही मत लाओ। तुम्हारा परमात्मा किसी मतलब का भी नहीं है। उसकी खोज का भी कोई सार नहीं है। तुम्हारी तकलीफ क्या है? उसे काट लो। जिस दिन तुम ऐसे क्षण में पहुंच जाओगे जहां कोई तकलीफ नहीं है, कोई चिंता नहीं है, कोई संताप नहीं है, जहां तुम अचानक पाओगे कि तुम परितुष्ट हो, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो जाएगा। तुम्हारा संतोष सत्य से मिलने का द्वार है। तो तुम कैसे संतुष्ट हो जाओ, इसकी ही बात करो। मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि हम तो नास्तिक हैं। तो मैं कहता हूं, मजे से रहो। इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं। बिना जाने तुम आस्तिक हो कैसे सकते हो? आश्चर्य तो उन पर है मुझे जो आस्तिक हैं बिना जाने। वे अदभुत लोग हैं। जिनको कोई पता ही नहीं है परमात्मा का, आस्तिक बने बैठे हैं। उनसे बड़े धोखेबाज तुम कहीं भी न पाओगे। इसलिए जितना मुल्क आस्तिक होता है उतना धोखेबाज होता है। भारत इसका प्रमाण है। यहां तुम जितना धोखा पाओगे, नास्तिक मुल्कों में न पाओगे, रूस में न पाओगे। यहां धोखाधड़ी जन्मजात है; यहां खून में है। क्योंकि बड़े से बड़ा धोखा तुम दे रहे हो आस्तिक होने का। जिसकी तुम्हें कोई भी खबर नहीं है, जहां तुम खड़े हो उस अंधकार में जिसकी कोई किरण तुम्हें कभी दिखाई नहीं पड़ी, और तुम आस्तिक हो। और तुम मरने-मारने को उतारू हो, अगर कोई कहे कि ईश्वर नहीं है। झगड़ा-झांसा करने में तुम कुशल हो। तलवारें उठा लोगे। और तुम्हारी आस्तिकता बिलकुल ही पोच, उसमें कोई प्राण नहीं है। वह बिलकुल निर्जीव है। आश्चर्य इसमें कुछ भी नहीं है, स्वाभाविक है। जब मेरे पास कोई आकर कहता है, मैं नास्तिक हूं, क्या मैं भी ध्यान कर सकता हूँ? तो मैं कहता हूं, इसमें अड़चन कहां है? आस्तिक तक ध्यान कर रहे हैं तो तू तो नास्तिक है। बिलकुल ठीक है। स्वाभाविक है। क्योंकि जिसे हमने जाना नहीं उसे मानने का दावा, इससे बड़ा धोखा और क्या होगा? नास्तिक कम से कम ईमानदार तो है। कम से कम यह तो एहसास करता है कि मुझे पता नहीं तो मैं कैसे मानूं? कम से कम साफ तो है। किसी प्रवंचना में तो नहीं है। आस्तिकता-नास्तिकता से कुछ लेना-देना नहीं है, धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म का तो संबंध है तुम्हारे जीवन की चिकित्सा से। तुम आस्तिक हो या नास्तिक, क्या फर्क पड़ता है! जब तुम डाक्टर के पास जाते हो वह तुमसे पूछता है? तुम्हें सर्दी-जुकाम, पहले पूछता है, आस्तिक कि नास्तिक? क्या लेना-देना आस्तिकता-नास्तिकता से! सर्दी-जुकाम का इलाज करना है; आस्तिक-नास्तिक से क्या लेना-देना है। हिंदू या मुसलमान, ईसाई कि जैन-पूछता है? क्योंकि इससे क्या फर्क पड़ता है! सर्दी-जुकाम को 187|
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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