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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ जीवन का स्वभाव फैलाव का है। एक बीज तुम बोते हो छोटा सा, एक विराट वृक्ष पैदा होता है। कितना फैल गया! इसी को हम ब्रह्म कहते हैं। फिर एक बीज बोया था, एक बड़ा वृक्ष लगा, और वृक्ष पर कितने अरबों-खरबों बीज लगते हैं। अब तुम एक-एक बीज को फिर बो दो, अरबों-खरबों वृक्ष होंगे और हर वृक्ष पर अरबों-खरबों बीज लगेंगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक बीज पूरी पृथ्वी को हरा कर सकता है, एक बीज पूरी पृथ्वी को जंगलों से ढंक दे सकता है। एक बीज की इतनी क्षमता! यही अस्तित्व का लक्षण है: फैलते जाना, फैलते जाना, फैलते जाना। कहां रुकेगा यह बीज? कहीं नहीं रुकने वाला है। इसका कोई रुकना नहीं है। आनंद आखिरी बीज है जीवन का। उससे ऊपर कुछ नहीं है। उसके पार कुछ नहीं है। उसका फैलना कहीं रुकता नहीं। इसलिए जिन्होंने जाना है, वे बोल नहीं सकते और बिना बोले नहीं रह सकते। यह पहेली है। बोलेंगे ही, और बोल-बोल कर बार-बार कहेंगे कि जो जानता है वह बोल नहीं सकता, वह कह नहीं सकता। यह शर्त भी बता देंगे कि तुम कहीं उनके शब्दों को न पकड़ लो। क्योंकि शब्दों को पकड़ा कि तुम चूक गए। जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मेरे शब्दों में नहीं है। जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं वह मेरे शब्दों से तुम्हें नहीं मिलेगा। तुम मेरे शब्दों को पकड़ कर रुक गए तो तुम वह न जान पाए जो मैं कहना चाहता था। शब्द तो इंगित थे, . इशारे थे। उनके पार जाना जरूरी था। तुम मेरे शब्दों को सुनना, लेकिन उन पर रुक मत जाना। क्योंकि शब्द सत्य नहीं हैं। तुम शब्दों को सुनना और शब्द के पार देखना। शब्द को समझना और शब्द के पार उठना। मैं जो कहूं उसे सुनना और मैं जो हूं उसे देखना। अंततः तो दर्शन ही काम आएगा, श्रवण काम नहीं आएगा। श्रवण केवल दर्शन के योग्य बना दे, बस काफी है। तुम सुन-सुन कर इस योग्य हो जाओ कि देखने की कला और कुशलता आ जाए। इसलिए तो हम ज्ञानी को द्रष्टा कहते हैं, श्रोता नहीं। सुन-सुन कर तो कोई ज्ञानी नहीं होता; देख कर कोई ज्ञानी होता है। इसलिए द्रष्टा कहते हैं। इसीलिए तो हम उसे आंख वाला कहते हैं। इसीलिए तो हम इस सत्य की पूरी खोज को दर्शन कहते हैं। सुन कर तुम इस योग्य हो जाओ कि देखने की कला आ जाए। कान पर पड़ती चोट तुम्हारी आंख को खोल दे। और जैसे साधारणतया शरीर की आंख और कान जुड़े हैं-इसीलिए तो आंख का, कान का और नाक का एक ही विशेषज्ञ होता है, क्योंकि वे शरीर में भी जुड़े हैं, उनके तीनों का केंद्र एक है और ऐसे ही वे चेतना में भी जुड़े हैं। कान पर चोट कर-कर के सारी कोशिश यह है कि तुम्हारी आंख खुल जाए। कोई आदमी सो रहा है, तुम क्या करते हो? क्या तुम उसकी आंख खोलते हो? तुम कान पर चोट करते हो कि उठो! जागो! कभी तुम्हें किसी को सोते से जगाने के लिए पलकें खोलनी पड़ती हैं? कान पर करते हो चोट, पलकें खुलती हैं। बस वही ज्ञानी भी कर रहा है। कान पर करता है चोट कि पलकें खुल जाएं। सोए हो तुम, जगाता है। और पलकें खोलना सीधा थोड़ा आक्रामक होगा। सीधे किसी सोए आदमी की पलकें खोल दो, नाराज हो जाएगा, क्रोध से भर जाएगा, लड़ने-मारने को उतारू हो जाएगा कि यह तुमने क्या किया! कान पर चोट करने से आहिस्ता-आहिस्ता आंख पर चोट पड़ती है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे एक माधुर्य के साथ आंखें खुल जाती हैं। इसलिए ज्ञानी को बोलना पड़ता है। और ज्ञानी भलीभांति जानता है कि बोल कर बोलने का कोई उपाय नहीं है। तो बोलना एक विधि है। सत्य उससे न मिलेगा। सत्य तो आंख से ही दिखेगा; तुम्हारे ही अनुभव से मिलेगा। इसलिए निरंतर यह शर्त कही गई है कि जो जानता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह जानता नहीं। पंडित सिर्फ बोलता है। वह तुम्हारे कानों को भरता है। ज्ञानी बोलता भी है तो तुम्हारी आंखों को ही खोलने के लिए। लक्ष्य अलग-अलग हैं। पंडित बोलता है तो तुम्हारे ज्ञान को बढ़ाता है, ज्ञानी बोलता है तो तुम्हारे अस्तित्व को बढ़ाता है, तुम्हारे ज्ञान को नहीं। ज्ञान तो कचरा है। ज्ञान तो जूठन है। ज्ञान तो बासा है। और परमात्मा सदा ताजा है। तुम उसे जूठन की तरह न पाओगे। तुम उसे सदा ताजी अनुभूति की तरह पाओगे। 184
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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