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________________ सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता बुद्ध चालीस वर्ष बोलते ही रहे, सतत बोलते रहे। और आखिर में वे यही कहते हैं कि अपने दीए खुद हो जाओ। तुम जानोगे तभी जानोगे; दूसरे के बताए न बनेगी बात। तो एक तो सत्य का स्वभाव ऐसा है कि वह शून्य में उपलब्ध होता है जहां मन की कोई छाया भी नहीं पहुंच सकती। और जिसने जाना ही नहीं वह बेचारा मन करे भी क्या? उसका कोई कसूर भी नहीं है। जाना मैंने, गवाही तुमसे दिलवाता हूं। तुम भीतर न गए थे, भीतर मैं गया था। तुम बाहर द्वार पर खड़े रहे थे, भीतर क्या हुआ तुम्हें कुछ पता नहीं है। मैं द्वार पर वापस लौट कर तुमसे कहता हूं कि कहो कि ऐसा-ऐसा जाना। मन सकुचाता है। इसलिए ज्ञानी हमेशा सकुचाता है। अज्ञानी बिना सकुचाए बोलते हैं, चिल्ला कर बोलते हैं, मकानों के छप्परों पर चढ़ कर बोलते हैं। ज्ञानी सकुचाता है, झिझकता है, एक-एक कदम सम्हाल कर रखता है। क्योंकि उसे पक्का ही पता है कि सब सम्हाल कर कहने पर भी गलती हो जाती है। शब्द उसे नहीं कह पाते। इसलिए कहा नहीं जा सकता और बिना कहे नहीं रहा जा सकता। क्योंकि जो जाना है उसके अनुभव में ही उसे बांटने की बात भी छिपी है। आनंद का स्वभाव है कि वह बंटना चाहता है। दुख का स्वभाव है कि वह सिकुड़ना चाहता है। जब तुम दुखी होते हो तो द्वार-दरवाजे बंद करके अपने बिस्तर में पड़े रहते हो, ओढ़ लेते हो रजाई, छिप जाते हो, चाहते हो कोई मिलने न आए। कोई मिलने भी आए तो कहते हैं, फिर कभी आना, अभी मिलना न हो सकेगा। अपने निकटतम, प्रियतम व्यक्ति से भी तुम कुछ कहना नहीं चाहते। दुख सिकोड़ता है। इसलिए दुख की आखिरी अवस्था में लोग आत्मघात कर लेते हैं। आत्मघात का मतलब है बिलकुल सिकुड़ जाना, सब संबंध तोड़ लेना। अब इतना भी नहीं संबंध जोड़ना है जरा सा कि जीवन का भी संबंध रहे। जीएंगे तो कुछ संबंध रहेगा ही; श्वास चलेगी तो कुछ संबंध रहेगा ही। आत्मघात का इतना ही अर्थ है कि दुख का इतना प्रगाढ़ संघात हुआ है कि अब आदमी कहता है, मैं पूरा सिकुड़ जाता हूं, मैं जीवन से विदा हो जाता हूं। अब मैं महान अंधकार में खो जाना चाहता हूं; अब रोशनी में खड़ा नहीं रहना चाहता। क्योंकि रोशनी में तो बांटूंगा; कुछ न कुछ संबंध होगा। आनंद ठीक विपरीत है। जब तुम आनंद से भरते हो तब तुम बांटना चाहते हो। तब तुम किसी को निमंत्रण करना चाहते हो। तब तुम उत्सव मनाना चाहते हो। तब तुम चाहते हो, जो तुम्हारे हैं, जिनके साथ तुम जीए हो, बढ़े हो, खेले हो, जो अभी भटक रहे हैं अंधेरे में, उनको भी खबर मिल जाए कि तुम्हें मिल गया है। तुम सारी दुनिया को जगा देना चाहते हो। तुम एक प्रगाढ़ करुणा से भर जाते हो कि जो तुमने पाया है वह सभी को मिल जाए। __ आनंद का स्वभाव बंटना है, विस्तार है। इसलिए हमने ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा है। उसके आनंद को हमने उसमें एक अपरिहार्य अंग माना है। क्यों? और उसको ब्रह्म भी कहा है। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है जो विस्तीर्ण होता जाए, फैलता जाए, फैलता जाए; जिसके फैलाव का कोई अंत न हो, जिसकी कोई सीमा न आती हो। अभी वैज्ञानिक इस सत्य पर पहुंचे हैं कि अस्तित्व फैल रहा है। एक्सपैंडिंग युनिवर्स। इसके पहले ऐसा खयाल था पश्चिम में कि अस्तित्व की कोई सीमा है। लेकिन अब पता चला है कि अस्तित्व फैल रहा है। लेकिन हिंदू इसे सदियों से कहते रहे हैं। उनके ब्रह्म शब्द में ही यह बात छिपी है। ब्रह्म वहीं से आता है, उसी धातु से, जहां से विस्तार। ब्रह्म का अर्थ है : फैलता जाता है जो, जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं, जो रुकता ही नहीं, फैलता ही जाता है। उसका ही अनिवार्य अंग है आनंद। सत्य, चैतन्य और आनंद-ये तीनों फैलने वाले तत्व हैं। इसलिए हमने इनको ब्रह्म कहा है, और ब्रह्म का स्वभाव कहा है। और जब कोई व्यक्ति अपनी गहन आत्मा में उतरता है और उस द्वार को खोल लेता है जो स्वयं के भीतर ही छिपा था, जब कोई मन के पार जाता है, विचार दूर छूट जाते हैं, बहुत दूर, जैसे अपने न रहे, और कोई अपने केंद्र को छू लेता है, उसी क्षण उस महा विस्तार से एक हो जाता है। फिर वह भी फैलना चाहता है। फिर वह भी बंटना चाहता है। 183
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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